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________________ 74. वर्ण, जाति और धर्म नामकर्म इनके निमित्तसे वर्तमान पर्यायका निर्माण होता है, क्योंकि जीवको. स्त्री, पुरुष या नपुंसक संज्ञा तथा पर्याप्त या अपर्याप्त संज्ञा भवके प्रथम समयमें ही मिल जाती है। इस दृष्टिसे किसी मनुप्यके शरीरमें दाड़ी, मूछ या द्रव्यपुरुषके अन्य चिह्न हैं,इसलिए वह नोआगमभाव पुरुष है ऐसा नहीं कहा जा सकता है तथा किसी मनुष्यके शरीरमें कुच आदि द्रव्यस्त्रीके चिह्न हैं, इसलिए वह नोआगमभाव मनुष्यिनी है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ये सब विशेषताएँ शरीरकी हैं जीवकी नहीं। इसी प्रकार कोई जीव अपने अङ्गोंसे परिपूर्ण है, इसलिए वह पर्याप्त है यह नहीं है तथा कोई मनुष्य विकलाङ्ग है, इसलिए वह अपर्याप्त है यह भी नहीं है, क्योंकि ये विशेषताएँ शरीरकी हैं जीवकी नहीं। किन्तु यहाँपर स्त्रीवेद आदि कर्मों के उदयसे होनेवाले जीवभावोंका ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि ये सब कर्म जीवविपाकी हैं। इसलिए सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और मनुष्य अपर्याप्त ये चारों भेद मनुष्यगतिनामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए मनुष्य पर्याय विशिष्ट जीवोंके ही जानने चाहिए / इन्हीं सब विशेषताओंको ध्यान में रखकर गोम्मटसार कर्मकाण्डके उदय प्रकरणमें इनके इस प्रकारसे लक्षण किये गये हैं--जिनके मनुष्यगतिका नियमसे तथा तीनों वेदोंमेंसे किसी एकका और पर्याप्त तथा अपर्याप्तमें से किसी एकका उदय होता है बे सब सामान्य मनुष्य हैं, जिनके मनुष्यगतिके साथ पुरुषवेद और नपुंसकवेदमें से किसी एकका तथा पर्याप्त नामकर्मका उदय होता है वे मनुष्य पर्याप्त हैं, जिनके मनुष्यगति, स्त्रीवेद और पर्याप्त नामकर्मका उदय होता है वे मनुष्यिनी हैं और जिनके मनुष्यगति, नपुंसकवेद तथा अपर्याप्त नामकर्मका उदय होता है वे मनुष्य अपर्याप्त है। इस प्रकार मनुष्योंके ये अवान्तर भेद भी नोआगमभावरूप हैं यह सिद्ध हो जाता है / इस स्थितिके रहते हुए भी किन्होंके द्वारा मनुष्यनी शब्दका अर्थ द्रव्यस्त्री किया जाना सम्भव है। इस बातको ध्यानमें रखकर वीरसेन स्वामीने धवला टीकामें दो स्थलोंपर 'मनुष्यनी' शब्दके अर्थपर विस्तारके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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