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________________ . नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा 75 साथ विचार किया है। प्रथम स्थल जीवस्थान सत्प्ररूपणाके 63 वे सूत्रकी टीका है। इस स्थलपर शंकाकारके द्वारा दो शंकाएँ उठवाई गई हैं। प्रथमशंका सम्यग्दर्शनसे सम्बन्ध रहती है और दूसरी शंकाका सम्बन्ध मुक्तिसे है। सम्यग्दर्शनके सम्बन्धमें शंका करते हुए शंकाकार कर्मसाहित्यके इस नियमसे तो परिचित है कि जो सम्यग्दृष्टि जीव मरकर मनुष्यों, तिर्यञ्चों और देवोंमें उत्पन्न होता है वह पुरुषवेदी ही होता है, स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी नहीं होता। फिर भी वह यह स्वीकार कराना चाहता है कि कोई सम्यग्दृष्टि जीब मरकर हुण्डावसर्पिणी कालके दोषसे यदि स्त्रियोंमें उत्पन्न हो जाय तो क्या हानि है ? इससे पूर्वोक्त नियम भी बना रहता है और अपवादरूपमें सम्यग्दृष्टियोंका मरकर स्त्रियोंमें उत्पन्न होना भी बन जाता है। वीरसेन स्वामीने इस शंकाका नो समाधान किया है उसका भाव यह है कि इसी 63 वें सूत्रमें निरपवाद रूपसे जब यह स्वीकार किया गया है कि मनुष्यिनियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता। ऐसी अवस्थामें हुण्डावसर्पिणी काल दोषसे भी सम्यग्दृष्टि जीवोंका मरकर स्त्रियोंमें उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। अतः यही मानना उचित है कि सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रियों में नहीं उत्पन्न होते / _शंकाकारने दूसरी शंका मनुष्यिनीशब्दका अर्थ मुख्यरूपसे द्रव्यस्त्री करके उठाई है। उसका कहना है कि जब इसी 63 वे सूत्रके आधारसे मनुष्यिनीके चौदह गुणस्थान बन जाते हैं तब इस आगम वचनके अनुसार ही द्रव्यपुरुषके समान द्रव्यस्त्री भी मुक्तिको पात्र है इसे स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वीरसेन स्वामीने इस शंकाका विस्तारके साथ समाधान किया है। उन्होंने प्रथम तो यह बतलाया है कि द्रव्यस्त्री अपने जीवनमें वस्त्रका त्याग नहीं कर सकती, अतः उसके भाव अधिकसे अधिक संयमासंयम गुणस्थान तकके ही हो सकते हैं। उसके आंशिकरूपमें द्रव्यसंयमके रहते हुए भी भावसंयम नहीं हो सकता, इसलिए द्रव्यस्त्रीका उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करना सम्भव नहीं है। इसपर यह शंका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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