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________________ - नोभागमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममोमांसा 71 नहीं और अधिकतर मनुष्य इसी कारणसे भ्रममें भी पड़ जाते हैं। परन्तु आगममें गुणस्थान और मार्गणास्थानके लिए आई हुई जितनी भी संज्ञाएँ हैं वे नोआगमभावरूप हो ली गई हैं यह इसीसे स्पष्ट है कि वर्गणाखण्डमें चौदह मार्गणाएँ और उनके जितने भी अवान्तर भेद हैं उन सबकी व्याख्या तद्वयतिरिक्त नोकर्मद्रव्यपरक न करके नोआगमभावपरक ही की गई है। तुल्लकबन्धका यह निर्देश अपनेमें मौलिक है और उससे आगमपरम्परामें क्या अभिप्रेत है इसका स्पष्ट बोध हो जाता है। स्पष्ट है कि जहाँपर आगममें मनुष्य या मनुष्यिनी शब्द आया है उससे नोआगमभाव मनुष्य या मनुष्यिनीका ही ग्रहण करना चाहिए / नोआगमभाव मनुष्योंके अवान्तर भेद. इस प्रकार मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्यजाति ( सब मनुष्य ) एक प्रकारको होकर भी स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इन तीन वेदनांकषायमोहनीय कर्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त नामककर्मके उदयकी अपेक्षा वह चार भागोंमें विभक्त हो जाती है। यथा-सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और मनुष्य अपर्याप्त / यहाँ पर ये जितने कर्म गिनाये हैं वे सब जीवविपाकी हैं, क्योंकि उनके उदयसे जीवकी अवस्थाओंका ही निर्माण होता है, पुद्गलकी अवस्थाओंका नहीं। मनुष्यजातिके उक्त अवान्तर भेद भी इन्हीं कर्मों के उदयसे निर्मित होते हैं, अतः इन भेदोंको जीवके नोआगमभावरूप ही जानने चाहिए, मनुष्य शरीरके अवान्तर भेदरूप नहीं। .. यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जिस जीवकी वर्तमान पर्याय जिन कर्मोके उदयसे होती है उनका वर्तमान भवग्रहणके प्रथम समयमें ही उदय हो जाता है और जिन कर्मों के उदयसे शरीररचना आदि होती है उनका उदय शरीरग्रहणके प्रथम समयमें होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये तीनों वेदनोकषायकर्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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