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________________ 72 वर्ण, जाति और धर्म इसपर यह शंका हो सकती है कि पुद्गलविपाकी कर्मों के फलसे युक्त भी तो जीव होता है, इसलिए जिस मनुष्य जीवको औदारिक शरीर नामकर्मके उदयसे औदारिकशरीरकी प्राप्ति हुई है उसके उस शरीरको भी नोआगम भाव मनुष्य कहा जाना चाहिए। इस प्रकार इस शंकाको मनमें करके उक्त गाथाके उत्तरार्ध द्वारा उसका समाधान किया गया है। आशय है कि पुद्गलविपाकी कर्मका फल जीवमें नहीं होता, अतः पुद्गलविपाकी कर्मोंके उदयसे होनेवाला कार्य जीवके नोआगमभाव संज्ञाको नहीं प्राप्त हो सकता। यह नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका ही अभिप्राय हो ऐसी बात नहीं है / वर्गणाखण्डमें विपाकप्रत्ययिक अजीवभावोंका निर्देश करते हुए स्वयं भगवान् पुष्पदन्त भूतबलीने विपाकजन्य रूप-रसादिकी ही ऐसे भावोंमें परिगणना की है (बन्धन सू० 21) / इससे भी स्पष्ट है कि आगम साहित्यमें मनुष्य शब्दका अर्थ मनुष्य पर्याय विशिष्ट जीव हो लिया है अन्य नहीं। उसे नोआगमभाव कहने का भी यही अभिप्राय है। ___ यद्यपि निक्षेप व्यवस्थामें द्रव्यनिक्षेपरूपसे भी मनुष्यादि शब्दोंका व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। जैसे द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री, द्रव्यनपुंसक, द्रव्यमनुष्य, द्रव्यगोत्र, द्रव्यलेश्या, द्रव्यसंयम और द्रव्यमन आदि। इसलिए इस आधारसे कोई यह भी कह सकता है कि मनुष्य शब्दका व्यवहार केवल नोआगमभावरूप अर्थमें हो न होकर तद्वयतिरिक्त नोकर्म द्रव्य अर्थमें भी होता है और प्रकृतमें तद्वयरिक्त नोकर्मद्रव्यसे एक मात्र शरीरका ही ग्रहण किया जाता है। लोकमें भी कहा जाता है कि अमुक स्थानपर मनुष्य मरा पड़ा है वास्तवमें वहाँपर मनुष्य तो नहीं मरा पड़ा है। वह तो कभीका चल बसा है। इतना अवश्य है कि वहाँपर इसके निर्जीव शरीरको देखकर उसमें भी मनुष्य शब्दका व्यवहार किया गया है, इसलिए इस आधारसे यह कहना कि आगम साहित्यमें केवल नोआगमभाव मनुष्यका ही ग्रहण किया गया है तद्वयतिरिक्त नोकर्मद्रव्यका नहीं उचित नहीं है ? समाधान यह है कि यह हम मानते हैं कि लोकमें ऐसा व्यवहार होता है इसमें सन्देह
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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