________________ . नोआगमभाव मनुष्योंमें धर्माधर्ममीमांसा रखनेवालों और शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाली विविध अवस्थाओंको प्राप्तकर जीवन यापन करता है। संसारका यही क्रम है जो अनादिकालसे चला आ रहा है और तबतक चलता रहेगा जब तक इसने अपने मूल स्वभावकी पहिचान द्वारा उसका आश्रय लेकर पुद्गल और उसके निमित्तसे होनेवाले भावोंसे मुक्ति प्राप्त नहीं करली है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ठ हो जाता है कि जितने भी कर्म हैं वे मुख्यरूपसे जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी इन दो भागोंमें विभाजित हैं। उनमें जो जीवविपाकी कर्म हैं उनके निमित्तसे जीवकी विविध अवस्थाओंका निर्माण होता है और जो पुद्गलविपाकी कर्म हैं उनके निमित्तसे संसारी जीवके आधारभूत शरीर, मन, वाणी और .स्वासोच्छासका निर्माण होता है। मुख्यरूपसे ये दो ही प्रकार के कार्य हैं जिन्हें संसारो जीव कर्मोंकी सहायतासे करते रहते हैं। इनके सिवा अन्य जितनी स्त्री, पुत्र, मकान और धनादि भोगसामग्री मिलती है वह सब जीवकी लेश्या और कषायसे ही प्रात होती है। उसे किसी स्वतन्त्र कर्मका कार्य मानना उचित नहीं है। इतना अवश्य हैं कि विविध प्रकारके गति आदि कर्मों के भोगका क्षेत्र सुनिश्चित होनेसे उपचार से उसे भी कर्मका कार्य कहा जाता है। किन्तु जिस प्रकार औदारिकशरीर की प्राप्तिके लिए औदारिक शरीर नामकर्म है उस प्रकार भोगोपभोगकी सामग्रीकी प्राप्तिके लिए कोई कर्म नहीं है। कर्मका कार्य वह कहलाता है जो प्राप्त होता है स्वीकार नहीं किया जाता। किन्तु भोगोपभोगकी सामग्री स्वीकार की जाती है प्राप्त नहीं होती, इसलिए जिन भावोंसे इसे स्वीकार किया जाता है वे भाव ही उसकी प्राप्ति अर्थात् स्वीकार करनेमें कारण हैं। - इस प्रकार सामान्यरूपसे कर्मोंके कार्यका निर्णय हो जानेपर प्रकृतमें मनुष्यगतिकी अपेक्षासे विचार करना है। मूल कर्म आठ और उनके उत्तर भेद एक सौ अड़तालीस हैं यह तो हम पहले ही बतला आये हैं। उनमें से नामकर्मके तेरानवे भेद हैं, जिनमें चार गतिकर्म हैं। 'गम्यते इति गतिः' इस व्युत्पत्तिके अनुसार जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते हैं /