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________________ 68. वर्ण, जाति और धर्म अपेक्षा एक सौ अड़तालीस प्रकारके हैं। ये सब कर्म जीवविपाकी, पुद्गल- . विपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी इन चार भागोंमें विभक्त किये गये हैं। उनमें से क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी ये संज्ञाएं प्रयोजन विशेषसे स्थापित की गई हैं। कर्मोंके मुख्य भेद दो ही हैं-जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी। ___ यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जीवका संसार पुद्गलके संयोगसे निर्मित होता है / इससे स्पष्ट है कि जीवको नर-नारक आदि और काम-क्रोध आदि जो विविध अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं बे भी कर्मके निमित्तसे होती हैं और जीवके लिए भवधारण करनेके, लिए छोटे बड़े जो विविध प्रकारके शरीर तथा मन, वचन और श्वासोच्छ्ासकी प्राप्ति होती है वह भी कर्मके निमित्तसे होती है। फलस्वरूप जिन कर्मोंके निमित्तसे जीवकी ही विविध अवस्थाएं उत्पन्न होती हैं उन्हें जीवविपाकी कर्म कहते हैं, क्योंकि इन कर्मोंका विपाक जीवको नर-नारक आदि और काम-क्रोध श्रादि विविध अवस्थाओंके सृजन करनेमें होता है और जिन कर्मोंके निमित्तसे जीवके लिए शरीर आदि मिलते हैं उन्हें पुद्गलविपाकी कर्म कहते हैं, क्योंकि इन कर्मोंका विपाक जीवको संसार में रखनेमें प्रयोजनभूत शरीर आदिके निर्माण करनेमें होता है। - ऐसा नियम है कि एक भवको छोड़कर दूसरे भवको ग्रहण करने के प्रथम समयसे उस भवसम्बन्धी जीवविपाकी कर्म अपना कार्य करने लगते हैं और जब यह जीव पूर्वके भवसम्बन्धी क्षेत्रसे नवीन भवसम्बन्धी क्षेत्रतककी दूरीको पार करके उत्पत्तिस्थान या योनिस्थानमें प्रवेश करता है तब अपने अपने नारक और तिर्यञ्च आदि गतिकर्मों तथा एकेन्द्रिय आदि जातिकर्मों के अविनाभावी पुद्गलविपाकी कर्म उस क्षेत्रमें प्राप्त हुए अपने योग्य बीजका आलम्बन लेकर विविध प्रकारके शरीर, तथा उनके आङ्गोपाङ्ग, आकार और संगठन अदि रूपसे अपना कार्य करने लगते हैं। इस प्रकार यह जीव प्रत्येक भवमें अपने आत्मासे सम्बन्ध
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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