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________________ वर्ण, जाति और धर्म सामान्यसे सब जीव एक प्रकारके हैं / स्वयं उनकी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवरूप कोई अवस्था नहीं है। इनमेंसे विवक्षित. अवस्थाको प्राप्त कराना यह गति नामक नामकर्मका कार्य है, इसलिए इसके नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार भेद किये गये हैं। ये चारों प्रकारके गतिनामकर्म जीवविपाकी हैं। जीवविपाकी कर्म किन्हें कहते हैं इसका स्पष्टतः निर्देश हम पहले कर ही आये हैं। इससे स्पष्ट है कि मनुष्यगति नामक नामकर्मके उदयसे जीव मनुष्य होता है, इसलिए इससे एकमात्र मनुष्य पर्यायविशिष्ट जीवका बीध होता है, शरीरका नहीं और न जीव और शरीर मिलकर दोनोंका ही। चौदह मार्गणाओंमें नोागमभावरूप जोवपर्याय ही ली गई हैं। इनका पूरे विवरणके साथ स्पष्टीकरण क्षुल्लकबन्धमें किया गया है / वहाँ पर मनुष्यगतिमें मनुष्य कैसे होता है यह प्रश्न करके आगेके सूत्र द्वारा उसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि मनुष्यगति नामक नामकर्मके उदयसे यह जीव मनुष्य होता है (सामित्त सू० 8-6) / वर्गणाखण्डमें भी जीवभावके तीन भेद करके विपाकप्रत्ययिक जीवभाव दिखलाने के लिए स्वतन्त्ररूपसे एक सूत्र आया है। उसमें देव, मनुष्य, तिर्यञ्च,नारक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, क्रोध,मान, माया और लोभ आदि ये सब विपाकप्रत्ययिक जीवभाव कहे गये हैं (निबंधन सू०१५)। __ये दोनों उल्लेख षट्खण्डागम नामक मूल आगम साहित्यके हैं जो इस बातका समर्थन करनेके लिए पर्याप्त हैं कि आगममें जहाँ भी मनुष्य या मनुष्यिनी आदि शब्दोंका व्यवहार हुआ है वहाँ उनसे जीवकी अवस्था विशेषको ही ग्रहण किया गया है। इतना ही नहीं, तत्त्वार्थसूत्र आदि उत्तरकालीन साहित्यसे भी इसका समर्थन होता है, अन्यथा वहाँ जीवके इक्कीस औदयिक भावों में चार गतियोंका ग्रहण करना नहीं बन सकता है (त० सू० अ० 2, 6) /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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