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________________ समाजधर्म वर्णके सम्बन्धमें भी इस नियमकी व्यवस्था की गई है। मनुस्मृतिके * अनुसार नाना वर्ण और नाना जातियाँ बननेका एकमात्र कारण विवाह और जारकर्म ही है। अन्य कर्मोंकी अपेक्षा इसमें सवर्ण विवाहके ऊपर अधिक बल दिया गया है / मात्र सगोत्र विवाह इसमें निषिद्ध है। दानग्रहण आदिकी पात्रता पहले हम ब्राह्मणके छह कर्मोंका निर्देश कर आये हैं। वे ये है-अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह / इनमेंसे अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह ये तीन कर्म ब्राह्मणकी आजीविकाके साधन हैं। पढ़ानेका, यशादि कर्म करानेका और दान लेनेका एकमात्र अधिकारी ब्राह्मण है / शेष तीन वर्णवाले नहीं / अध्ययन, यजन और. दान इन तीन कर्मों के अधिकारी शूद्रोंके सिवा शेष दोवर्णवाले भी हैं। शूद्र इन छह कर्मों में से किसी एक भी कर्मका अधिकारी नहीं है। इसका यह तात्पर्य है कि शूद्र न तो देवता की पूजा कर सकता है, न यज्ञादि कर्म कर सकता है, न वेदादिका अध्ययन कर सकता है और न ब्राह्मणको दान ही दे सकता है। अध्यापन और प्रतिग्रहकर्म का क्षत्रिय और वैश्य अधिकारी तो नहीं है पर कदाचित् ऐसा प्रसङ्ग उपस्थित् हो कि ब्राह्मण अध्यापक न मिलने पर क्षत्रिय और वैश्यसे पढ़ना पढ़े तो पढ़नेवाला शिष्य अध्ययन काल तक मात्र उसका अनुवर्तन करे परन्तु उसका पादप्रक्षालन आदि कार्य न करे। तथा मोक्षकी इच्छासे उसके पास निवास भी न करें। एक तो ब्राह्मणके शेष तीन वर्णवाले अतिथि नहीं होते / यदा कदाचित् क्षत्रिय, उसके घर अतिथिरूपसे उपस्थित ..हो हो जाय तो पहले सब ब्राह्मणोंके भोजन कर लेने पर बादमें वह उसे 1. मनुस्मृति अ० 10 श्लो० 64, 65 / 2. मनुस्मृति भ० 3 'श्लो० 174. तथा अ० 10 श्लो० 8 से लेकर / 3. मनुस्मृति अ० 10. श्लो० 76 से 78 तक / 4. मनुस्मृति अ० 2 श्लो० 241-242 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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