________________ वर्ण, जाति और धर्म विवाह और वर्णपरिवर्तनके नियम- वर्णव्यवस्थाके सम्बन्धमें मनुस्मृतिकी यह मौलिक मान्यता है / उसके अनुसार साधारणतः किसी व्यक्तिका वर्ण नहीं बदलता। जिस वर्णवालेका जो वर्णकर्तव्य है उसे छोड़कर यदि वह अन्य वर्णवालेका आचार स्वीकार करता है तो भो वर्णपरिवर्तन नहीं होता / मात्र विवाह इसका अपवाद है। विवाहके विषयमें सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक वर्णवालेको अपने वर्णकी कन्याके साथ हो विवाह करना चाहिए। यह धर्मविवाह है। कामविवाहके सम्बन्धमें यह नियम है कि शूद्रकी मात्र शूद्रा भार्या होती है / वह अन्य तीन वर्णकी स्त्रियोंको स्वीकार करनेका अधिकारी नहीं है। वैश्यकी शूद्र और वैश्य इन दो वर्षों की पत्नियाँ हो सकती हैं / वह ब्राह्मण और क्षत्रिय स्त्रीको रखनेका अधिकारी नहीं है। क्षत्रियकी शूद्रा, वैश्या और क्षत्रिया ये तीन प्रकारकी पत्नियाँ हो सकती हैं। वह ब्राह्मण स्त्रीको पत्नी बनानेका अधिकारी नहीं है। तथा ब्राह्मणके चारों वर्णों की पत्नियाँ हो सकती हैं। इसे ऐसा करने में वर्णाश्रमधर्मसे कोई रुकावट नहीं आती। परन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको आपत्कालमें भी शूद्रा स्त्रीको पनीरूपसे स्वीकार नहीं करना चाहिए / जो द्विजाति मोहवश हीन जातिकी स्त्रीके साथ विवाह करता है वह सन्तानके साथ शूद्रवर्णका हो जाता है / साथ ही मनुस्मृतिमें यह भी बतलाया है कि ब्राह्मणके योगसे शूद्रा स्त्रीके सन्तान उत्पन्न होने पर उस सन्तानका वर्ण पारशव हो जाता है। कदाचित् इस प्रकारके सम्बन्धसे कन्या उत्पन्न होती है और लगातार सात पीढ़ी तक प्रत्येक पीढ़ीमें कन्या ही उत्पन्न होती रहती है और उसका प्रत्येक बार ब्राह्मणके साथ ही विवाह होता है तो इस प्रकार उत्पन्न हुई सन्तानका अन्तमें पुनः ब्राह्मण वर्ण हो जाता है। तात्पर्य यह है कि इस क्रमसे सातवीं पीढ़ीमें शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है / क्षत्रिय और वैश्य 1. मनुस्मृति अ० 3 श्लो० 12 से 15 तक /