________________ समाजधर्म चार वर्णोका वर्णधर्म- जैसा कि हम पूर्वमें कह आये हैं, मनुस्मृति एकमात्र इसी तथ्यका अनुसरण करती है। यही कारण है कि वेदविहित धर्मकी वह सर्वोत्कृष्ट व्याख्या मानी जाती है और सभी सामाजिक व्यवस्थाओंका उसके आधारसे विचार किया जाता है। यद्यपि स्मृतिग्रन्थ अनेक हैं परन्तु थोड़े बहुत मतमेदोंको छोड़कर मौलिक मान्यताकी दृष्टिसे उनमें कोई अन्तर नहीं है। वैदिक परम्परामें जो दर्शन ईश्वरवादी नहीं हैं, समाजव्यवस्थामें वे भी उसे मान्य करते हैं, इसलिए यहाँ पर मुख्यतः मनुस्मृतिके आधारसे समाजधर्मका चित्र उपस्थित कर देना हम आवश्यक मानते हैं / मनुस्मृतिके प्रारम्भमें सृष्टिको उत्पत्तिका निर्देश करनेके. साथ चार वर्णों की उत्पत्ति और उनके पृथक्-पृथक् वर्णधर्मका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि ब्रह्माने ब्राह्मणोंके अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान और प्रतिग्रह ये छह कर्म निश्चित किये / क्षत्रियोंके प्रजाकी रक्षा, दान, पूजा, अध्ययन और विषयोंके प्रति अनासक्ति ये कर्म निश्चित किये। वैश्योंके पशुत्रोंकी रक्षा, दान, पूजा, अध्ययन, वाणिज्य और कुसीद ये कर्म निश्चित किये तथा शूद्रोंका डाहसे रहित होकर उक्त तीन वर्णोंकी शुश्रूषा करना एकमात्र यह कर्म निश्चित किया / यहाँ पर जिन वर्णों के जो कर्म बतलाये गये हैं उनका जीवनपर्यन्त पालन करना यही उनका स्वधर्म है। अपने-अपने धर्मका पालन करते हुए मरण होनेपर सद्गति मिलती है। कदाचित् भूलकर एक वर्णवाला अन्य वर्णके आचारको स्वीकार करता है तो उसे राजा और ईश्वरके कोपका भाजन होना पड़ता है गीताका 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' यह वचन इसी तथ्यको ध्यान में रखकर कहा गया है। 1. मनुस्मृति अ० 1 श्लोक 88-61 /