________________ 56 . वर्ण, जाति और धर्म - तैत्तिरीयारण्यकके तृतीय प्रपाठकके बारहवें अनुवाकमें भी ये मन्त्र आये हैं। इनकी व्याख्या करते हुए सायणाचार्य कहते हैं-प्रजापतिके प्राणरूप देवोंने जब विराट रूप पुरुषको रचा अर्थात् अपने संल्कपसे उत्पन्न . किया तब कितने प्रकारसे उसे रचा ? उसका मुख कौन हुआ, उसके दोनों बाहु कौन हुए, उसके दोनों उरु (जंधाएँ ) कौन हुए और उसके दोनों पग कौन हुए ? ब्राह्मणों को उसके मुखरूपसे उत्पन्न किया, क्षत्रियोंको दोनों बाहुरूपसे उत्पन्न किया, वैश्योंको दोनों उरुरूपसे उत्पन्न किया और शूद्रों- : को दोनों पगरूपसे उत्पन्न किया। . इस प्रसङ्गमें बहुतसे विद्वान् यह आपत्ति करते हैं कि यह रूपक है / वस्तुतः ब्राह्मणवर्णका पठन-पाठन आदि कार्य मुख्य है, इसलिए उसे मुस्त्रकी उपमा दो गई है, क्षत्रियवर्णका रक्षा कार्य मुख्य है, इसलिए उसे दोनों बाहुओंकी उपमा दी गई है, वैश्यका अन्नोत्पादन आदि कार्य मुख्य है, इसलिए उसे दोनों उरुओंकी उपमा दी गई है और शूद्भवर्णका सेवा कार्य मुख्य है, इसलिए उसे दोनों पगोंकी उपमा दी गई है। किन्तु उनकी यह आपत्ति हमें प्रकृतमें उपयोगी नहीं जान पड़ती, क्योंकि सृष्टि के उत्पत्ति क्रमके प्रसङ्गसे ये मन्त्र आये हैं, इसलिए इनका सायणाचार्यकृत अर्थ ही सङ्गत लगता है / वैदिकधर्ममें सृष्टिको सादि मानकर ईश्वरको उसके प्रमुख आरम्भक कारणरूपसे स्वीकार किया गया है। ऐसी अवस्थामें ब्राह्मणादि वर्गों की उत्पत्ति ईश्वरका कार्य ही ठहरती है। वह मनुष्यों को तो उत्पन्न करे और उनके पृथक्-पृथक् वर्ण और कार्य निश्चित न करे यह सम्भव नहीं प्रतीत होता। हमें तो वैदिक धर्मग्रन्योंकी यह प्रकृति ही माननी चाहिए, अन्यथा जिस हेतुसे यह उपक्रम किया गया उसकी पुष्टि नहीं होती। यह वैदिक धार्मिक साहित्यकी प्रकृति है। इस प्रकार इन दोनों धर्मों के साहित्यका आलोढन करनेसे व्यक्तिधर्म और समाजधर्मके मध्य मौलिक भेदं क्या है यह स्पष्ट हो जाता है।।