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________________ समाजधर्म हो या दुराचारी, अध्यापन कार्य करता हो या न करता हो। यह ईश्वर का विधान है। उसमें परिवर्तन करना मनुष्यके बूतेके बाहर है। क्षत्रियादि अन्य वर्गों के सम्बन्धमें भी वहाँ पर इसी प्रकारके नियम देखे जाते हैं। यही कारण है कि उस धर्ममें एकमात्र जन्मसे वर्णव्यवस्था मानी गई है कर्मसे नहीं। - उस धर्मके मूल ग्रन्थ वेद हैं। इन्हें धर्मका मूल कहा जाता हैवेदोऽखिलो धर्ममूलम् / इनमें मुख्यरूपसे यागादि क्रियाकाण्डका ही विस्तार है। ब्राह्मण ग्रन्थ वेदोंका विस्तार होनेसे उनमें भी इसीका ऊहापोह किया गया है / उपनिषदोंको छोड़कर अन्य धार्मिक साहित्यकी स्थिति इससे कुछ भिन्न नहीं है। उपनिषदोंमें ज्ञानकाण्डपर बोर देकर भी उस विद्याको ब्राह्मणों तक ही सीमित रखनेका प्रयत्न हुआ है, क्यों कि मनुस्मृतिमें कर्मके प्रवृत्त कर्म और निवृत्तकर्म ये दो भेद करके निवृत्तकर्म (ज्ञानमार्ग) का अधिकारी -- ब्राह्मण ही माना गया है। इन सब ग्रन्थोंकी प्रकृति ब्राह्मणोंकी प्रतिष्ठा स्थापित करना होनेसे इनमें पूरे समाजको रचना एकमात्र उक्त तथ्यको केन्द्रमें रख कर की गई है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेदमें सृष्टि उत्पत्तिके प्रसङ्गमें ये मन्त्र आये हैं यत्पुरुषं व्यदधुः कतिभा व्यकल्पयन् / मुखं किमस्य को बाहू कावूरू पादावुच्यते // .. ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः / उरू तदस्य यद्वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत / . 1. एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फलोदयः / नैश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं निबोधत // - मनुस्मृति अ० 12 श्लो० 82 / ... 2. ऋ० स० 10-60, 11-12 / य० सं० 31, 10-11 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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