________________ वर्ण, जाति और धर्म प्राणीमात्रका धर्म है और वह वर्णाश्रम धर्मसे भिन्न है। इसी भावको . व्यक्त करते हुए आचार्य पूज्यपाद समाधितन्त्रमें कहते हैं जातिदेहाश्रिता दृष्टा देह एव आत्मनो भवः। न मुच्यन्ते भवात्तस्मात्ते ये जातिकृताग्रहाः // 8 // जाति-लिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः / तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परमं पदमात्मनः // 8 // जाति देहके आश्रयसे देखी जाती है और आत्माका संसार एकमात्र यह देह है, इसलिए जो जातिकृत आग्रहसे युक्त हैं वे संसारसे मुक्त नहीं होते // 88 // ब्राह्मण आदि जाति और जटाधारण आदि लिङ्गके विकल्पसे जिनका धर्ममें आग्रह है वे भी आत्माके परम पदको प्राप्त नहीं होते // 86 // ____ जैनधर्म किसी जातिविशेषका धर्म नहीं है। उसका दरवाजा सबके लिए समानरूपसे खुला हुआ है। श्रावकधर्म दोहाके कर्ताने श्रावकधर्मका उपसंहार करते हुए इस सत्यको बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें व्यक्त किया है। वे कहते हैं एहु धम्मु जो आयरइ बंभणु सुदु वि कोइ / सो सावट किं सावयह भण्णु कि सिरि मणि होइ. // 76 // ब्राह्मण हो चाहे शूद्र, जो कोई इस धर्मका आचरण करता है वही श्रावक है / और क्या श्रावकके सिरपर कोई मणि रहता है। समाजधर्म व्यक्तिधर्म और समाजधर्ममें अन्तर पिछले प्रकरणमें हम व्यक्तिगत धर्म पर बहुत कुछ लिख आये हैं। इस प्रकरणमें हमें समाजधर्म पर विचार करना है। साथ ही यह भी