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________________ व्यक्तिधर्म - 41 करते हैं वे इसके अधिकारी होते हैं। और यह हमारी कोरी कल्पना नहीं है, क्योंकि जैनधर्म तो इसे स्वीकार करता ही है, मनुस्मृति भी इस तथ्यको स्वीकार करती है। वहाँ सामसिक अर्थात् चारों वर्गों के समान धर्मका निर्देश करते हुए बतलाया है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रियनिग्रह यह चारों वर्गों के मनुष्यों द्वारा पालने योग्य सामान्य धर्म मनुने कहा है / यथा. अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः / एतं सामासिक धर्म चातुर्वण्र्येऽब्रवीन्मनुः // 10-63 // याज्ञवल्क्यस्मृतिमें यह सामान्य धर्म नौ भेदोंमें विभक्त किया गया है / पाँच धर्म तो पूर्वोक्त ही हैं। चार ये हैं-दान, दम, दया और क्षान्ति / प्रमाण इस प्रकार है अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः / दानं दमो दया क्षान्तिः सर्वेषां धर्मसाधनम् / / 5-122 // इस श्लोकमें आये हुए 'सर्वेषां' पदकी व्याख्या करते हुए वहाँ टीकामें कहा है एते सर्वेषां पुरुषाणां ब्राह्मणाद्याचण्डालं धर्मसाधनम् / अर्थात् ये अहिंसा आदि नौ धर्म ब्राह्मणसे लेकर चाण्डाल तक सब पुरुषोंके धर्मके साधन हैं। - जैनधर्ममें गृहस्थधर्मके बारह और मुनिधर्मके अट्ठाईस भेद किये गये हैं / उन सबका समावेश इन अहिंसादिक उक्त धर्मों में हो जाता है / विचार कर देखा जाय तो अहिंसा ही एक धर्म हैं। अन्य सब मात्र उसका विस्तार है, अतएव यह माननेके लिए पर्याप्त आधार है कि मनुस्मृतिके ये वचन एकमात्र जैनधर्मकी ओर ही संकेत करते हैं। अर्थात् मनुस्मृतिकार भी इन वचनों द्वारा यह स्वीकार करते हैं कि जैनधर्म
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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