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________________ 48 वर्ण, जाति और धर्म देषकी निवृत्ति होकर अपनी आत्मामें स्थित होना आभ्यन्तर चारित्र है। भौर उसके सद्भावमें बाह्य प्रवृत्तिरूप बाम चारित्र है। बाह्य प्रवृत्तिकी सार्थकता आभ्यन्तर चारित्रकी उन्मुखतामें है अन्यथा नहीं, इतना यहाँ विशेष समझना चाहिए। अधिकारी भेदसे वह दो प्रकारका है-देशचारित्र और सकलचारित्र / देशचारित्र गृहस्थोंके होता है और सकलचारित्र साधुओंके। सकलचारित्र उत्सर्ग मार्ग है, क्योंकि मोक्षप्राप्तिका वह साक्षात् साधन है और देशचारित्र अपवाद मार्ग है, क्योंकि इसमें संसारके कारण परिग्रह आदिकी बहुलता बनी रहती है। इनमेंसे देशचारित्र को धारण करनेके अधिकारी तिर्यञ्च और मनुष्य होते हैं और सकलचारित्रको धारण करनेके अधिकारी मात्र मनुष्य ही होते हैं / यह दोनों प्रकारका धर्म मोक्षकी प्राप्तिमें साधक है, इसलिए इसमें जातिवादका प्रवेश नहीं हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य रविषेण पद्मचरितमें कहते हैं न जातिगर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम् / व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 203 // पर्व 11 / . अर्थात् यह शूद्र और चाण्डाल है इसलिए गर्हित है और यह ब्राह्मण है इसलिए पूज्य है ऐसा नहीं है। वास्तवमें गुण कल्याणके कारण होते हैं, क्योंकि कमसे कोई चाण्डाल ही क्यों न हो यदि वह व्रती है तो वह ब्राह्मण माना गया है। __. तात्पर्य यह है कि जैनधर्ममें धर्मरूपसे प्रतिपादित चारित्रधर्म वर्णाश्रम धर्म नहीं है। किन्तु भोक्षकी इच्छासे आर्य या म्लेच्छ जो भी इसे स्वीकार 9. 1. रखकरण्ड० श्लो० 47 / 2. रनकरण्ड श्लो० 46 / 3. रत्नकरण्ड श्लो 50 / 4. रखकरण्ड श्लो० 50 / 5. सागारधर्मामृत अ०७ श्लो०६०।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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