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________________ व्यक्तिधर्म 47 कर सकते हैं वे जिनमन्दिर में भी जिनबिम्बका दर्शनकर और धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व लाभ कर सकते हैं, क्योंकि आसन्नभव्यता और कर्महानि आदि गुण अमुक जातिके मनुष्योंमें ही पाये जाते हैं शूद्रोंमें नहीं पाये जाते ऐसा कोई नियम नहीं है। जिनेन्द्रदेवने उनका प्रकाश चारों गतिके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें बतलाया है। इतना अवश्य है कि क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति स्थापना जिन आदिके सन्निकट न होकर तीर्थङ्कर केवली, इतर केवली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही होती है। सम्यकचारित्र धर्म और उसका अधिकारी. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके समान सम्यक्चारित्र भी धर्मका अङ्ग है यह तो हम पहले ही बतला आये हैं। प्रकृतमें उसके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग स्वरूपका विचारकर उसे धारण करनेका अधिकारी कौन है इसका निर्णय करना है। धर्ममें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका समान स्थान होनेपर भी सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है-दसणमूलो धम्मो। कारणका निर्देश करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनप्राभूतमें ' कहते हैं दसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्टस्स णस्थि णिव्वाणं / सिकंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिझति // 3 // * अर्थात् जो सम्यदर्शनसे च्युत हैं वे धर्मसे ही भ्रष्ट हैं। उन्हें निर्वाणकी प्राप्ति नहीं होती। चारित्रभ्रष्ट प्राणी कालान्तरमें सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं पर सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट प्राणी सिद्धि प्राप्त करनेके अधिकारी नहीं होते। . . . इस स्थितिके होते हुए भी जीवनमें चारित्रकी बड़ी उपयोगिता है। मोक्षप्राप्तिका वह अन्तिम साधन है। लक्ष्यका बोध होने पर उसमें निष्ठा सम्यग्दर्शनसे आती है और उसकी प्राप्ति सम्यक्चारित्रसे होती है / तात्पर्य यह है कि जो चारित्र आत्माको लक्ष्यकी ओर ले जाता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं / बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे वह दो प्रकारका है। राग और .
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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