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________________ 46 . - वर्ण, जाति और धर्म आजीविकाके साधन हैं वे इसमें बाधा उत्पन्न नहीं कर सकते। इतना' अवश्य है कि जिस क्रमसे उनकी आत्मोन्नति होने लगती है उसी क्रमसे उनकी आजीविका भी अपने-अपने पदके अनुरूप होती जाती है / अतः अन्य मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके समान शूद्र भी समवसरणमें पहुँचकर धर्मोपदेश सुनते हैं और जिनदेव के दर्शन करते हैं यह मानना उचित ही है। जिनमन्दिर समवसरणको प्रतिकृति है। इस विषयको स्पष्ट करते हुए पण्डितप्रवर आशाधरजी सागारधर्मामृतमें कहते हैं सेयमास्थायिका सोऽयं जिमस्तेऽमी सभासदः। . चिन्तयन्निति तत्रोच्चैरनुमोदेत धार्मिकान् // 6-10 // जहाँ साक्षात् जिनदेव विराजमान होते हैं वह समवसरण यही है जो जिनमन्दिरके रूपमें हमारे सामने उपस्थित है। जो जिनदेव गन्धकुटीमें विराजमान होते हैं वे जिनदेव यही हैं जो जिन मन्दिरमें वेदीके ऊपर सुशोभित हो रहे हैं / तथा जो सभास द समवसरणमें बारह कोठोंमें बैठकर धर्मोपदेश सुनते है वे सभासद यही तो हैं जो जिनमन्दिरमें बैठे हुए हैं। इस प्रकार विचार करता हुआ यह भव्य वहाँ पर प्रतिकर्ममें लगे हुए सब धर्मात्माओंकी बार-बार अनुमोदना करे। सागारधर्मामृतका उक्त उल्लेख समवसरण और जिनमन्दिरमें एकरूपता स्थापित करता है। यदि इनमें कोई अन्तर है तो इतना ही कि समवसरण साक्षात् धर्मसभा है और जिन मन्दिर उसकी स्थापना है। इससे स्पष्ट है कि जो शू द्रादि मनुष्य समवसरणमें जाकर जिनदर्शन और धर्मश्रवण के अधिकारी हैं वे उसके स्थापनारूप जिनमन्दिरमें भी जाकर जिनदर्शन और धर्मश्रवणके अधिकारी हैं, क्योंकि धर्मसाधनकी दृष्टिसे साक्षात् जिन और स्थापना जिनमें कोई अन्तर नहीं है / जो आसन्न भव्य समवसरणमें जिनदेवका दर्शनकर और धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व लाभ
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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