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________________ समाजधर्म देखना है कि समाजमें वर्ग-भेद मानकर अलग-अलग वर्गका क्या व्यक्तिगत धर्म भी पृथक्-पृथक् हो सकता है। किसी जैन कविने जीवनकी आवश्यकताओं पर प्रकाश डालते हुए यह दोहा कहा है कला बहत्तर पुरुषकी तामें दो सरदार / . एक जीवकी जीविका एक जीव-उद्धार // अर्थात् सब कलाओंमें दो कलाएँ मुख्य हैं-एक जीविका और दूसरी आत्मोन्नति / जिसे इस दोहेमें 'जीव-उद्धार' शब्द द्वारा कहा गया है वही व्यक्तिगत धर्म है और जिसे 'जीविका' शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है वही समाजधर्म है। यहाँ जीविका शब्द उपलक्षण है। उससे राज्य, विवाह आदि उन सब व्यवस्थाओं और नियमोंका बोध होता है जो लोकमें समाजको सुसंगठित बनानेके लिए आवश्यक माने गये हैं। यदि हम समाजधर्म और व्यक्तिधर्मको भेद करके समझना चाहें तो यही कह सकते हैं कि उन दोनोंके लिए क्रमशः लौकिकधर्म और आत्मधर्म ये दो शब्द उपयुक्त होंगे / समाजधर्म द्वारा मुख्यतया शरीरसम्बन्धी सब आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और व्यक्तिधर्म द्वारा आत्माको खुराक मिलती है। किन्तु शरीरसम्बन्धी सब आवश्यकताओंकी पूर्ति सङ्गठित सहयोगके बिना नहीं हो सकती, इसलिए उन विधि-विधानोंको, जो सबमें सहयोग बनाये रखते हैं, समाजधर्म कहते हैं और आत्मधर्ममें इस प्रकारके सहयोगकी अनिवार्य आवश्यकता नहीं पड़ती। जो व्यक्ति जितनी आत्मोन्नति करना चाहे करे, समाजके स्वार्थका हनन न होनेसे वह उसमें बाधक नहीं होता। प्रत्युत आदर्श मानकर वह उसका पदानुसरण करनेका ही प्रयत्न करता है, इसलिए इसे व्यक्तिधर्म कहते हैं। ये दोनों प्रकारको व्यवस्थाएँ परस्परमें बाधक न होकर समानताके आधारपर एक दूसरेको पूरक हैं। - जैनधर्म व्यक्तिधर्म है और वैदिकधर्म समाजधर्म है यह हम पहले ही लिख आये हैं। ऐसा लिखनेका कारण ही यह है कि जैनधर्मने मुख्यरूपसे श्रात्मोन्नतिके उपायों पर ही विचार किया है और वैदिकधर्ममें मुख्यरूपसे
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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