________________ व्यकिधर्म कर सकते हैं। राजा श्रेणिक नरकायुका बन्ध करनेके बाद क्षायिक. सम्यग्दृष्टि होकर तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं यह क्या है ? उनके मुनि होनेकी बात तो छोड़िए, उन्होंने क्रियामन्त्रगर्भ धर्मको अङ्गीकार कर यज्ञोपवीत तक धारण नहीं किया था। फिर भी वे तीर्थङ्कर प्रकृति जैसे लोकोत्तर पुण्यका सञ्चय कर सके क्या यह इस क्रियामन्त्रगर्भ धर्मकी निःसारताको सूचित नहीं करता है ? पद्मपुराणमें ऐसे धर्मकी निःसारताका निर्देश करते हुए आचार्य रविषेण कहते हैं . चातुर्विध्यं च यजात्या तन्न युक्तमहेतुकम् / ज्ञानं देहविशेषम्य न च श्लोकाग्निसम्भवात् // 11-16 // इसमें ब्राह्मणादि चार जातियोंकी निःसारताका निर्देश करते हुए कहा गया है कि हेतुके विना चार जातियोंको मान्यता ठीक नहीं है / कदाचित् जातियोंकी पुष्टिमें यह हेतुं. दिया जाय कि ब्राह्मण आदिका शरीर मन्त्रों और अग्निके द्वारा संस्कारित होकर उत्पन्न होता है, इसलिए उसमें विशेषता आ जाती है सो ऐसा भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शूद्रके शरीरसे ब्राह्मण आदिके शरीरमें कोई विशेषता नहीं देखी जातो। पद्मपुराणके इस कथनसे स्पष्ट है कि महापुराणमें जिस क्रियामन्त्रगर्भ धर्मका उपदेश दिया गया है उसे जैनधर्ममें रञ्चमात्र भी स्थान नहीं है। माना कि पद्मपुराणमें यह श्लोक वेदविहित जातिधर्मका निराकरण करनेके लिए आया है। पर वह प्रकृतमें शत प्रतिशत लागू होता है, क्योंकि महापुराणमें भी गर्भान्वय आदि क्रियाओंके आश्रयसे उसी वेदविहित धर्म द्वारा जैनधर्मको जातिधर्म बनानेका प्रयत्न किया गया है। इसको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए इसकी मनुस्मृतिके साथ तुलना कर लेना * आवश्यक है। इससे विदित होगा कि जिस प्रकार मनुस्मृतिमें उपनयन आदि संस्कार, यज्ञादिकी दीक्षा तथा इज्या आदिका अधिकारी तीन वर्णके