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________________ 2 . वर्ण, जाति और धर्म और स्वामी समन्तभद्रने बतलाया है कि जो अहिंसादि पाँच अणुव्रतों और. . सात शीलव्रतोंको धारण करता है वह श्रावक होता है। श्रावकका यह धर्म दार्शनिक आदि प्रतिमाओंके भेदसे ग्यारह भागोंमें बटा हुआ है जो उक्त बारह व्रतोंका विस्तारमात्र है / इस श्रावकधर्मको धारण करनेका अधिकारी कौन है इसका निर्देश करते हुए वहाँ पर जो बतलाया है उसका सार यह है कि जिसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो गई है और जो संसार, देह और भोगोंकी निःसारताको जानकर भी वर्तमानमें मुनिधर्मको स्वीकार करनेमें असमर्थ है वह श्रावकधर्मके. धारण करनेका अधिकारी है। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि श्रावकके इस धर्मको मनुष्योंकी तो बात छोड़िए स्त्रियाँ और तिर्यञ्च तक धारण कर सकते हैं और इसे धारण करनेके लिए उन्हें न तो यज्ञोपवीत लेनेकी आवश्यकता है और न अन्य कोई मन्त्रगर्भ क्रिया करनेकी / स्पष्ट है कि मुनि और श्रावकाचारका उपदेश और क्रियामन्त्रगर्भ धर्मका उपदेश इन दोनोंका परस्परमें कोई मेल नहीं है। ___ आगमकी अन्य मान्यताओंको दृष्टिसे विचार करनेपर भी हमें इसमें / अनेक विरोध दिखलाई देते हैं। उनमेंसे यहाँ पर हम एक ही विरोधका निर्देश करेंगे। आगममें तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धका प्रारम्भ मात्र मनुष्य करता है यह तो कहा है पर यह नहीं कहा कि मुनिपद पर आरूढ़ होनेके बाद ही वह उसका बन्ध कर सकता है। इसमें सन्देह नहीं कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सब सम्यग्दृष्टि नहीं करते। जिनके मनमें आत्मकल्याणके साथ संसारके अन्य प्राणियोंके उद्धारकी तीव्र भावना होती है वे ही इसका बन्ध करते हैं। इसके बन्धका प्रारम्भ करनेवाले मनुष्य श्रावक या मुनि होने ही चाहिये, वह भी क्रियामन्त्रगर्भ धर्मकी विधिसे, ऐसा कोई नियम नहीं है। किन्तु इसके विपरीत जो मात्र अविरतसम्यग्दृष्टि हैं वे भी इसके बन्धका प्रारम्भ कर सकते हैं। इतना ही नहीं, किन्तु जिन्होंने नरकायुका बन्ध कर लिया है और जो अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मिथ्यादृष्टि होकर नरकमें उत्पन्न होनेवाले हैं ऐसे सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी इसके बन्धका प्रारम्भ
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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