________________ म्वतिधर्म नहीं है। वह स्वयं किसी प्रकार अक्षरज्ञान कर ले यह बात अलग है। एक उपनीति क्रिया है। इस द्वारा भी तीन वर्णके मनुष्योंको उपनयन दीक्षाका अधिकारी माना गया है। इसी प्रकार आगे व्रतचर्या आदि जितनी भी क्रियाएँ हैं वे सब द्विजोंके लिए हो कही गई हैं। तात्पर्य यह है कि इन क्रियाओं द्वारा यह दिखाया गया है कि क्रियामन्त्रोंका आश्रय लेकर व्रत धारण करना, बिनदीक्षा लेना, तीर्थङ्करपदके योग्य सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करना आदि सब कार्य द्विजोंके लिए ही सुरक्षित हैं। यदि शूद्रवर्णके मनुष्योंके लिए वहाँ कोई बात कही गई है तो वह केवल इतनी ही कि जो दीयाके योग्य कुल ( तीन वर्ण )में उत्पन्न नहीं हुए हैं और जो विद्या और शिल्पकर्मसे अपनी आजीविका करते हैं उनके उपनक्न आदि संस्कार करना सम्मत नहीं है / वे यदि उचित व्रतोंको धारण करते हैं तो उन्हें उचित है कि वे सन्यासपूर्वक मरणके समय तक एक शाटकव्रतको धारण करके रहें / यह महापुराणके क्रियामन्त्रगर्भ' उपदेशका सार है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि महापुराणके उक्त उपदेशके अनुसार शूद्रवर्णके मनुष्य पूजा श्रादि सब धार्मिक कर्तव्योंसे वञ्चित हो जाते हैं / वे न तो यशोपवीत-पहिन सकते हैं, न गुरुके पास जाकर लिपिज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, न जिनमन्दिर में जाकर या बाहरसे ही जिनदेवकी अर्चा वन्दना कर सकते हैं और न अतिथि सत्कारपूर्वक दान ही दे सकते हैं। . किन्तु शूद्रोंके सम्बन्धमें इन तथ्योंको स्वीकार करनेके पहले हमें महापुराणके क्रियामन्त्रगर्भ इस उपदेशकी समीक्षा करनी होगी। हमें देखना होगा कि आचार्य जिनसेनने इस उपदेशके भीतर जिन तथ्योंका निर्देश किया है वे वीतराग सर्वज्ञदेवकी वाणीके कहाँ तक अनुरूप हैं। इसके लिए सर्व प्रथम हम श्रावकाचारको ही लेते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द 1. देखो महापुराण पर्व 38-3 / /