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________________ 44 . वणं, जाति और धर्म मनुष्योंको माना गया है। उसी प्रकार यहाँ पर भी उपनयन आदि संस्कार / श्रावक-मुनिदीचा तथा इज्या आदिका अधिकारी तीन वर्णके. मनुष्योंको ही माना गया है। वहाँ पर जिस प्रकार प्रत्येक वर्णका मनुष्य अपने-अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करता है इस पर नियन्त्रण रखनेका अधिकार राजाको दिया गया है उसी प्रकार यहाँ पर भी प्रत्येक वर्णका मनुष्य अपने-अपने धर्मका ठीक तरहसे पालन करता है इस पर नियन्त्रण रखनेका अधिकार राजाको ही दिया गया है। और भी ऐसी अनेक बातें हैं जो यह माननेके लिए बाध्य करती हैं कि महापुराणमें प्रतिपादित इस क्रियामन्त्रगर्भ धर्मका सम्बन्ध जैनधर्मके साथ न होकर, मनुस्मृतिके आधारसे ही इसका महापुराणमें उल्लेख हुआ है। प्रकृतमें यह बात ज्ञातव्य है कि महापुराणमें यह उपदेश भरत चक्रवीके मुखसे दिलाया गया है। साथ ही यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्य / जिनसेनके पूर्ववर्ती आचार्योंने इसका उल्लेख तक नहीं किया है / यदि हम महापुराणको ही बारीकीसे देखते हैं तो हमें यह भी स्पष्ट रूपसे विदित होता है कि आचार्य जिनसेन स्वयं भगवान् आदिनाथ द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्गकी धर्मपरम्पराको इसमें गर्भित करनेका तो प्रयत्न करते हैं परन्तु वे इसे वीतराग वाणीका अङ्ग बनानेके लिए प्रस्तुत नहीं हैं। उनके सामने परिस्थिति जो भी रही हो, इसमें सन्देह नहीं कि उनके इस प्रयत्नसे उत्तरकालीन कुछ जैन साहित्यमें जैनधर्मके प्रतिपादन करनेकी न केवल दिशा बदल गई है अपि तु उसने अपने सर्वोपकारी व्यक्तिवादी गुणको छोड़कर संकुचित वर्गवादी जातिधर्मका रूप ले लिया है। 1. मनुस्मृति अ० 10 श्लो० 126 / 2. महापुराण 50 36 श्लो० 158, 50 40 श्लो० 165 से। 3. मनुस्मृति अ० 0 श्लो० 17-18 / 4. महापुरुण पर्व 40 श्लोक 168 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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