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________________ गृहस्थोंके आवश्यककर्मोकी मीमांसा 443 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्मे तं विणा तहा सो वि // 11 // 'श्रावकधर्ममें दान और पूजा ये दो कार्य मुख्य हैं। इनके विना कोई श्रावक नहीं हो सकता। तथा यति धर्ममें ध्यान और अध्ययन ये दो कार्य मुख्य हैं। इनके बिना कोई यति नहीं हो सकता // 11 // ---रयणसार .. मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम् / अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः // 66 // श्री जिनेन्द्रदेवने मद्यत्याग, मांसत्याग और मधुत्यागके साथ पाँच अणुव्रतोंको गृहस्थोंके आठ मूलगुण कहा है // 66 / / --रत्नकरण्ड अत्रान्तरे जगादैवं कुण्डलस्वस्तमानसः / नाथाणुव्रतयुक्तानां का गतिदृश्यते वद // 26-66 // गुरुरूचे न यो मांसं खादत्यतिहढवतः / तस्य वच्यामि यत्पुण्यं सम्यग्दृष्टेविशेषतः // 26-17 // उपवासादिहीनस्य दरिद्रस्यापि धीमतः / मांसुभुक्तनिवृत्तस्य सुगतिहस्तवर्तिनी // 26-68 // यः पुनः शीलसम्पन्नो जिनशासनभावितः / सोऽणुव्रतधरः प्राणो सौधर्मादिषु जायते // 26-16 // अहिंसा प्रवरं मूलं धर्मस्य परिकीर्तितम् / सा च मांसानिवृत्तस्य जायतेऽयन्तनिर्मला // 26-100 // दयावान् सङ्गवान् योऽपि म्लेच्छश्चाण्डाल एव वा / मधुमासानिवृत्तः सन् सोऽपि पापेन मुच्यते // 26-101 // मुक्तमात्रः स पापेन पुण्यं गृह्णाति मानवः / जायते पुण्यबन्धेन सुरः सन्मनुजो यथा // 26-102 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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