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________________ 442 वर्ण, जाति और धर्म देव, ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु प्रदक्षिणाके क्रमसे बैठे // 18-61 // -चन्द्रप्रभचरित मिथ्यादृशः सदसि तत्र न सन्ति मिश्राः सासादनाः पुनरसंज्ञिवदप्यमव्याः। भव्याः परं विरचिताक्षलयः सुचित्तास्तिष्ठन्ति देववन्दनाभिमुखं गणोाम् उस समवसरणकी गणभूमिमें जिस प्रकार असंज्ञी जीव नहीं थे उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अभव्य जीव भी नहीं थे। केवल जिनेन्द्रदेवके सन्मुख हाथ जोड़े हुए सुन्दर चित्तवाले / भव्य जीव बैठे हुए थे // 10-46 // तस्थुर्यतीन्द्रदिविजप्रमदार्यिकाश्च ज्योतिष्कवन्यभवनामरवामनेत्राः / तं भावना वनसुरा ग्रहकल्पजाश्च माः प्रदक्षिणमुपेत्य मृगाः क्रमेण // उस समवसरणसभामें प्रदक्षिणा क्रमसे मुनीश्वर, स्वर्गवासिनी देवाङ्गना, आर्यिका, ज्योतिष्क देवाङ्गना, व्यन्तर देवाङ्गना, भवनवासी देवाङ्गना, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिष्क देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु बैठे // 18-35 // -वर्धमानचरित गृहस्थोंके आवश्यककर्मोकी मीमांसा दाणं पूजा सीलं उववासं बहुविहं पि खवणं पि / सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्म विणा दाहसंसारं // 10 // सम्यक्त्व सहित दान, पूजा, शील, उपवास और अनेक प्रकारका क्षपण यह सब मोक्षसुखको देनेवाला है और सम्यक्त्वके बिना दीर्घ संसारका कारण है // 10 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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