________________ वर्ण, जाति और धर्म __सम्यग्दृष्टिः पुनर्जन्तुः कृत्वाणुव्रतधारणम् / ... लभते परमान भोगान् विभुः स्वर्गनिवासिनाम् // 36-102 // इसी बीच त्रस्तमन होकर कुण्डलने पूछा हे नाथ ! अणुव्रतयुक्त मनुष्योंकी क्या गति होती है, बतलाइए // 26-66 / / भगवान्ने कहाजो व्रतोंमें अत्यन्त दृढ़ होकर मांस नहीं खाता है उसका जो पुण्य है उसे कहते हैं / तथा सम्यग्दृष्टिके पुण्यको विशेषरूपसे कहते हैं // 26-67 / / जो बुद्धिमान् दरिद्र पुरुष उपवास आदि नहीं करता किन्तु मांसभुक्तिका त्यागी है उसकी सुगति उसके हाथमें है / / 26-68 // किन्तु जो शीलसम्पन्न, जिनशासनभावित अणुव्रतधारी प्राणी है वह मरकर सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्पन्न होता है // 26-66 // अहिंसाको धर्मका सर्वोत्कृष्ट मूल कहा गया है और वह मांस आदिका त्याग करनेवाले मनुष्यके अत्यन्त निर्मल होती है / / 26-100 // म्लेच्छ या चाण्डाल जो भी दयासे और सत्सङ्गतिसे युक्त है वह यदि मधु और मांसका त्याग कर देता है तो वह पापसे मुक्त हो जाता है // 26-101 // तथा वह पापसे मुक्त होकर उत्तम पुण्यका बन्ध करता है और पुण्यबन्धके प्रभावसे वह वैसे ही देव होता है जैसे उत्तम मनुष्य // 26-102 // परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव अणुव्रतोंको धारणकर उत्तम भोगोंको प्राप्त करता है और देवोंका अधिपति होता है / / 26-103 // -पद्मचरित इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। . श्रुतोपासकसूत्रस्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् // 38-24 // भरतने उन ब्राह्मणोंको उपासकाध्ययनसूत्रसे इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तपका उपदेश दिया // 18-24 // कुलधर्मोऽयमित्येषामहत्पूजादिवर्णनम् / तदा भरतराजर्षिः अन्ववोचदनुक्रमात् // 38-25 // यह इनका कुलधर्म है ऐसा विचार कर राजर्षि भरतने उस समय अनुक्रमसे अर्हत्पूजा आदिका वर्णन किया // 38-25 // ..