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________________ 416 वर्ण, जाति और धर्म उस विषयके जानकार विद्वानोंके द्वारा लिखे हुए उस अष्टदल कमल अथवा जिनेन्द्र भगवानके समवशरण मण्डलकी जब सम्पूर्ण पूजा हो चुके तब श्राचार्य उस भव्य पुरुषको जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाके सम्मुख बैठावे और बार-बार उसके मस्तकको स्पर्श करता हुआ कहे कि यह तेरी श्रावककी दीक्षा है // 36-40, 41 // शुक्लवस्त्रोपवीतादिधारण वेष उच्यते / आर्यषट्कर्मजीवित्वं वृत्तमस्य प्रचक्षते // 36-55 // . जैनोपासकदीक्षा स्यात् समयः समयोचितम् / दधतो गोत्रजात्यादि नामान्तरमतः परम् // 36-56 // सफेद वस्त्र और यज्ञोपवीत आदि धारण करना वेष कहलाता है, आर्यों द्वारा करने योग्य छह कर्मोंको वृत्त कहते हैं और इसके बाद समयोचित गोत्र तथा जाति आदिके दूसरे नाम धारण करनेवाले पुरुषके जो जैन श्रावककी दीक्षा है उसे समय कहते हैं // 36-55, 56 // स्यक्तागारस्य तस्यातः तपोवनमुपेयुषः / एकशाटकधारित्वं प्राग्वद्दीक्षामिष्यते // 38-77 // तदनन्तर जो घर छोड़ कर तपोवनमें चला गया है ऐसे द्विजके जो एक वस्त्रका स्वीकार होता है वह पहलेके समान दीक्षाद्य नामकी क्रिया कही जाती है / / 38-77 // विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य वषुष्मतः / दीक्षायोग्यस्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः // 39-158 // जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और बुद्धि सन्मार्गकी अोर है ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है // 36-158 // अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि व्रतचर्यामनुक्रमात् / . स्याद्यत्रोपासकाध्यायः समासेनानुसंहृतः॥४०-१६५॥
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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