________________ चरित्रग्रहणमीमांसा शिरोलिङ्गमुरोलिङ्ग लिङ्गकट्य संश्रितम् / लिङ्गमस्योपनीतस्य प्राग्निर्णीतं चतुर्विधन // 40-166 // तत्तु स्यादसिवृत्त्या वा मष्या कृप्या वणिज्यया। यथास्वं वर्तमानानां सदृष्टीनां द्विजन्मनाम् // 40-167 // कुतश्चित् कारणाद् यस्य कुलं साम्प्रतदूषणम् / सोऽपि राजादिसम्मत्या शोधयेत् स्वं यदा कुलम् // 40-168 // तस्योपनयनाहत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ / न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः // 80-166 // अदीक्षा कुले जाता विद्याशिल्पोपजीविनः / एतेषामुपनीत्यादिसंस्कारो नाभिसम्मतः // 40-170 // तेषां स्यादुचितं लिङ्ग स्वयोग्यव्रतधारिणाम् / एकशाटकधारित्वं संन्यासमरणावधि // 40-171 // स्यान्निरामिषभोजित्वं कुलस्त्रीसेवनव्रतम् / अनारम्भवधोत्सर्गो ह्यभच्यापेयवर्जनम् // 40-172 // इति शुद्धतरां वृत्तिं व्रतपूतामुपेयिवान् / यो द्विजस्तस्य सम्पूर्णो व्रतचर्याविधिः स्मृतः // 40-173 // अब जिसमें उपासकाध्यायका संक्षेपमें संग्रह किया है ऐसी इस द्विजकी व्रतचर्याको अनुक्रमसे कहता हूँ // 40-165 // यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न बालकके शिरका चिह्न मुण्डन, वक्षस्थलका चिह्न यज्ञोपर्वात, कमरका चिह्न मूजकी डोरी और जॉघका चिह्न सफेद धोती इन चार चिह्नोंका पहले निर्णय कर आये हैं // 47-166 // किन्तु इस प्रकारका चिन्ह असि, मषि, कृषि और व्यापारसे यथायोग्य आजीविका करनेवाले सम्यग्दृष्टि द्विजोंका होता है // 40-167 / जिसका कुल इस समय किसी कारणसे दूषित हो जाय वह राजा आदिकी सम्मतिसे जब अपने कुलको शुद्ध कर लेता है // 40 168 // तब यदि उसके पूर्वज दीक्षा योग्य कुलमें उत्पन्न हुए हों तो उसके . पुत्र पौत्र आदि सन्ततिमें उपनयन आदि संस्कारका निषेध नहीं है // 40- .