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________________ चरित्रग्रहणमीमांसा पढमसम्मत्त संजमं च जुगवं पडिवज्जमाणो तिण्णि वि करणाणि काऊण पडिवजदि / तेसिं करणाणं लक्खणं जधा सम्मत्त पत्तीए भणिदं तधा वत्तव्यं / जदि पुण अट्ठावीससंतकम्मिओ मिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदो वा संजमं पडिवजदि तो दो चेव करणाणि, अणियट्टीकरणस्स अभावादो। ___ प्रथम सम्यक्त्व और संमयको एक साथ प्राप्त करनेवाला मनुष्य तीनों ही करण करके उन्हें प्राप्त करता है / उन करणोंके लक्षण सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय जिस प्रकार कहे हैं उस प्रकार यहाँ भी कहने चाहिए / यदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि या संयतासंयत मनुष्य संयमको प्राप्त करता है तो वह दो ही करण करता है, क्योंकि उसके अनिवृत्तिकरण नहीं होता। -जीवस्थान चूलिका धवला पृ० 218 / त्यक्तागारस्य सदृष्टेः प्रशान्तस्य गृहीशनः / प्राग्दीक्षोपयिकात् कालात् एकशाटकधारिणः // 38-157 // यस्पुनश्चरणं दीक्षाग्रहणं प्रति धार्यते / दीक्षाद्यं नाम तज्ज्ञेयं क्रियाजातं द्विजन्मनः // 38-158 // जिसने घर छोड़ दिया है, जो सम्यग्दृष्ठि है, प्रशान्त है, गृहस्थोंका स्वामी है और दीक्षा लेनेके पूर्व एक वस्त्रव्रतको स्वीकार कर चुका है वह दीक्षा लेनेके लिए जो भी आचरण करता है उस क्रियासमूहको द्विजकी . दीक्षाद्य नामकी क्रिया जाननी चाहिए // 38-157, 158 // -महापुराण तस्मिन्नष्टदले पद्मे जैने वास्थानमण्डले / विधिना लिखते तज्ज्ञर्विष्वग्विरचितार्चने // 39-40 // 'जिनार्चाभिमुखं सूरिः विधिनैनं निवेशयेत् / तथोपासकदीचोऽयमिति मूर्ध्नि मुहः स्पृशन् // 36-41 // 27 -
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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