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________________ व्यक्तिधर्म कुछ करने पर भी उस समय उसके मुनिधर्मके अनुरूप अन्तरङ्ग परिणाम हो ही जाते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है। किसीके बाह्य परिग्रहके त्यागके साथ ही मुनिपदके योग्य परिणाम हो जाते हैं, किसीके कालान्तरमें होते हैं और किसीके जीवन पर्यन्त नहीं होते। चरणानुयोगकी पद्धतिसे वह उस समयसे मुनि माना जाता है, क्योंकि चरणानुयोगमें मुख्यतासे बाह्य आचारका विचार किया गया है। पर करणानुयोगकी पद्धतिसे भावमुनि होना केवल दीक्षाके अधीन नहीं है। मुनिपदके योग्य परिणाम बाह्य परिग्रहका त्वाम किये बिना नहीं होते यह तो है पर बाह्य परिग्रहका त्याग करने पर वे हो ही जाते हैं ऐसा नहीं है। मुनिधर्मको अङ्गीकार करनेका यह उत्सर्ग मार्ग है।' इसके अपवाद अनेक हैं। - किन्तु गृहस्थधर्मको अङ्गीकार करनेकी पद्धति इससे कुछ भिन्न है, क्योंकि इसे केवल मनुष्य ही स्वीकार नहीं करते, तिर्यश्च भी स्वीकार करते हैं और व्रतोंको स्वीकार करनेवाले सब तिर्यञ्चोंका किसी गुरुके समक्ष उपस्थित होकर दीक्षा लेना सम्भव नहीं है। मनुष्योंमें भी देशविरत गृहस्थके जीवनसे अन्य गृहस्थके जीवनमें ऊपरी बहुत ही कम अन्तर होता : है। सांसारिक प्रपञ्चमें दोनों ही उलझे हुए होते हैं। केवल देशविरत गृहस्थका जीवन सब कार्योंमें मर्यादित होने लगता है और अन्य गृहस्थोंका जीवन मर्यादित नहीं होता। ऊपरसे देखने में यह अन्तर बहुत ही कम ‘दिखलाई देता है पर आन्तरिक परिणामोंमें इसका प्रभाव सीमातीत होता है। देशविरत गृहस्थको अन्य प्राणियोंके साथ व्यवहार करनेमें सीमा होती है, वचन बोलने में सीमा होती है, द्रव्यके स्वीकार करनेमें सीमा होती है, स्त्रीके स्वीकार करनेमें स्वीमा होती है और धनादिके सञ्चय करने तथा भोगोपभोगमें सीमा होती है। किन्तु अन्य गृहस्थके जीवनमें ऐसी सीमा ' . प्रवचनसार चारित्र अधिकार गाथा 2-3 /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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