________________ - म्यक्तिधर्म मनुष्य स्त्रियाँ, ज्योतिषियोंकी देवियाँ, व्यन्तरोंकी देवाङ्गनाएँ, भवनवासियोंकी देवाङ्गनाऐं, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और पशु बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं। समवसरणमें कौन जानेका अधिकारी है और कौन जानेका अधिकारी नहीं है इसका विचार योग्यताके आधारसे किया गया है। एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक जितने जीवधारी प्राणी हैं वे मन रहित होनेसे धर्मोपदेश सुननेकी योग्यता ही नहीं रखते, अतएव एक तो ये नहीं जाते। अभव्य संशी भी हों तो भी उनमें स्वभावसे धर्मको ग्रहण करनेकी पात्रता नहीं होती, अतएव एक ये नहीं जाते / यद्यपि जैनसाहित्यमें ऐसे अभव्योंका भी उल्लेख है जो मुनिव्रत धारण कर. जीवन भर उसका पालन करते हुए मरकर नौग्रैवयक तकके देवों में उत्पन्न होते हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि धर्मोपदेश तो अभव्य जीव भी सुनते हैं अतएव उनकी समवसरणमें अनुपस्थितिका निर्देश करना ठीक नहीं है। परन्तु जब हम इसके भीतर निहित तत्त्व पर विचार करते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अभव्य जीव भले ही मुनिव्रत अङ्गीकार करते हों। परन्तु ऐसा करते हुए उनकी दृष्टि लौकिक ही रहती है पारमार्थिक नहीं। जिसकी पूर्ति अन्य साधुओंके बाह्य आचार और लोकमान्यता आदिको देखकर भी हो जाती है / अतएव सारांशरूपमें यही. फलित होता है कि असंज्ञी जीवोंके समान अभव्य जीव भी समवसरणमें नहीं जाते। इसी प्रकार जो विपरीतमार्गी हैं, अस्थिरचित्तवाले हैं और लोक तथा परलोकके विषयमें संशयालु होनेसे धर्मकी जिज्ञासा रहित हैं एक वे नहीं जाते / इनके सिवा भवनत्रिक और कल्पोपपन्न देव तथा जिस प्रदेशमें धर्मसभा हो रही है, मुख्यरूपसे उस प्रदेशके आर्य-अनार्य सभी प्रकारके मनुष्य और पशु धर्मसभामें 1. महापुराण पर्व 23 श्लो० 113 /