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________________ वर्ण, जाति और धर्म दर्शन करनेसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होना सम्भव है, अन्यथा जिनबिम्ब दर्शन तिर्यञ्चोंमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका कारण नहीं बन सकता। : तिर्यञ्चोंके समान मनुष्योंमें भी सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके ये ही तीन साधन पाये जाते हैं / यद्यपि विद्याधर आदि बहुतसे मनुष्य जिनमहिमाको देखकर भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न करते हैं, इसलिए इनमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके चार कारण कहे जा सकते हैं परन्तु इस साधनका जिनबिम्बदर्शनमें अन्तर्भाव हो जानेसे इसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। इसी प्रकार लन्धिसम्पन्न ऋषिदर्शन नामक साधनको भी जिनबिम्बदर्शनमें ही अन्तर्भूत कर लेना चाहिए। देवोंमें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके चार साधन होते हैं-जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमदर्शन और देवर्धिदर्शन / सहस्रारकल्प तक ये चारों ही साधन होते हैं। किन्तु आगे देवर्धिदर्शन साधन नहीं होता और नौ ग्रैवेयकके देवोंका मध्यलोक आदिमें गमन सम्भव न होनेसे जिनमहिमदर्शन नामका साधन भी नहीं होता। यह स्मरण रहे कि यहाँ पर सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जो साधन बतलाये गये हैं उनमें जिनबिम्बदर्शन भी एक है और इस साधनके आलम्बनसे तिर्यचों तकके सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति होती हुई बतलाई गई है। इससे स्पष्ट है कि यह साधन उन मनुष्यों के लिए भी सुलभ है जिन्हें वैदिक कालसे लेकर अबतक सामाजिक दृष्टिसे हीन माना गया है। फिर भी यह प्रश्न विशेष विचारके योग्य होनेसे अगले प्रकरणमें इस पर स्वतन्त्ररूपसे विचार किया जाता है। इन साधनोका अधिकारी मनुष्यमात्र जैनसाहित्यमें बतलाया है कि तीर्थङ्कर जिनको केवलशान होने पर उनकी धर्मसभा जिसे समवसरण कहते हैं बारह भागों ( कोष्ठों) में विभाजित की जाती है। उनमें क्रमसे मुनि, कल्पवासियोंकी देवाङ्गनाएँ,
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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