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________________ 380 वर्ण, जाति और धर्म तत्त्वकी भावनासे रहित है वह इन सब भेदोंको उपादेयरूप सदा आनन्द स्वभाव वीतराग आत्मतत्त्वके साथ सम्बद्ध करता है। अर्थात् इन ब्राह्मणादि भेदोंको आत्मा मानता है / / 81 // . 'अप्पा बंभणु वइसु ण वि ण वि खत्तिउ ण वि सेसु / पुरिसु णउंसउ इत्थि ण वि' आत्मा ब्राह्मणो न भवति, वैश्योऽपि नैव, नापि पत्रियो, नापि शेषः शूद्रादिः, पुरुषनपुंसकस्त्रीलिङ्गरूपोऽपि नैव / तर्हि किंशिष्टः ? 'गाणिउ मुणइ असेसु' ज्ञानी ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञानी सन् किं करोति ? मनुते जानाति / कम् ! अशेष वस्तुजातं वस्तुसमूहमिति / तद्यथायानेव ब्राह्मणादिवर्णभेदान् पुल्लिङ्गादिलिङ्गभेदान् व्यवहारेण परमात्मपदार्थादभिन्नान् शुद्धनिश्चयेन भिन्नान् साक्षाद्धेयभूतान वीतरागनिर्विकल्पसमाधिच्युतो बहिरात्मा स्वात्मनि योजयति तानेव तद्विपरीतभावना. रतोऽन्तरात्मा स्वशुद्धात्मस्वरूपेण योजयतीति तात्पर्यार्थः / / 86 // ___ तात्पर्य यह है कि ये ब्राह्मण आदि जितने वर्णभेद हैं और पुल्लिङ्ग आदि लिङ्गभेद हैं वे उपचरित असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा जोवसे अभिन्न होकर भी निश्चयनयसे जीवसे भिन्न और हेय हैं। किन्तु वीतराग निर्विकल्प समाधिसे च्युत हुआ यह बहिरात्मा उन सब भेदोंको आत्मामें घटित करता है / यह इस मिथ्यादृष्टि जीवका महान् अज्ञान है / / 87 // -परमात्मप्रकाश ब्रह्मदेव टीका ब्राह्मणवर्णमीमांसा द्विजातयो मुख्यतया नृलोके तद्वाक्यतो लोकगतिः स्थितिश्च / देवाश्च तेषां हवनक्रियाभिस्तृप्तिं प्रयान्तीति च लोकवादः // 28 // संसारमें यह किंवदन्ती चली आ रही है कि मनुष्योंमें ब्राह्मण सर्वत्र श्रेष्ठ हैं। उनके उपदेशसे ही लोकव्यवहार चलता है, मर्यादा निश्चित होती है और उनकी हवनक्रियासे देवगण तृप्तिको प्राप्त होते हैं // 28 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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