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________________ ब्राह्मणवर्णमीमांसा 381 पत्राणि पुष्पाणि फलानि गन्धान्वस्त्राणि नानाविधभोजनानि / संगृह्य सम्यग्बहुभिः समेताः स्वयं द्विजा राजागृहं प्रयान्ति // 26 // प्रवेष्टुकामाः क्षितिपस्य वेश्मद्वास्स्थैनिरुद्धाः क्षणमीक्षमाणाः / तिष्ठन्त्यभद्राः करुणं त्रुवाणा नालं किमेतत्परिभूतिमूलम् // 30 // किन्तु जब ये द्विज पत्र, फूल, फल, गन्ध, वस्त्र और नाना प्रकारके भोजनोंको संग्रह कर इन्हें लेकर स्वयं राजमहलमें प्रवेश करते हैं तो द्वारपालके द्वारा ये दीन बाहर ही रोक दिये जानेपर प्रतीक्षा करते हुए वहीं खड़े रहते हैं और भीतर प्रवेश करनेके लिए गिड़गिड़ाने लगते हैं। क्या उनका यह पराभव उसके मूल कारणोंको बतलानेके लिए पर्याप्त नहीं है / / 26-30 // यदीश्वरं प्रीतिमुखं स्वपश्यंस्ते मन्यते भूतलराज्यलाभम् / पराङ्मुखश्चेन्नृपतिस्तथैव राज्याद्विनष्टा इव ते भवन्ति // 31 // - किसी प्रकार भीतर प्रवेश करके यदि राजाको प्रसन्न देखते हैं तो अपनेको ऐसा मानने लगते हैं कि पृथिवीका राज्य हो मिल गया है और कदाचित् राजाको अपनेसे प्रतिकूल पाते हैं तो समझते हैं कि मानो पृथिवीका राज्य ही चला गया है // 31 / / भवन्ति रोषान्नृपतेर्द्विजानां दिशो दश प्रज्वलिता इवात्र / द्विजातिरोषान्नृपतेः पुनः स्याद्भल्लातकस्नेह इवाश्मपृष्ठे // 32 // राजाके रोषवश वे ऐसा अनुभव करने लगते हैं कि मानो उनके चारों श्रोर दशों दिशाएँ हो प्रज्वलित हो उठी हैं और यदि सब ब्राह्मण मिलकर रुष्ट हो जाते हैं तो राजाके लिए उसका उतना ही प्रभाव होता है जितना कि भिलवेकें तेलको पत्थरके ऊपर बहानेका होता है // 32 // ये निग्रहानुग्रहयोरशक्ता द्विजा वराकाः परपोष्यजीवाः / मायाविनो दीनतमा नृपेभ्यः कथं भवन्त्युत्तमजातयस्ते // 33 // जो द्विज दूसरोंका निग्रह और अनुग्रह करनेमें असमर्थ हैं, गरीब हैं,
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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