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________________ 378 वर्ण, जाति और धर्म वर्ण और आश्रमोंके धर्म और अधर्मकी व्यवस्था होती है // 2 // अपने ' अपने पक्षके अनुरागके अनुकूल प्रवृत्ति करते हुए समस्त लोकव्यवहारमें सभी धर्मवाले मिलकर अधिकारी होते हैं // 3 // स्मृतियाँ धर्मशास्त्र हैं। वे वेदार्थका संग्रह करके बनी हैं, इसलिए वेद ही हैं // 4 // अध्ययन, यजन और दान ये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्णके समान धर्म हैं // 5 // तीन वर्ण द्विजाति हैं // 6 / / पढ़ाना, पूजा कराना और दान लेना ये ब्राह्मणों के मुख्य कर्म हैं // 7 // प्राणियोंकी रक्षा करना, शस्त्रद्वारा आजीविका करना, सज्जनोंका उपकार करना, दीनोंका उद्धार करना और रणसे विमुख नहीं होना ये क्षत्रियोंके कर्म हैं // 8 // कृषि प्रादिसे श्राजीविका करना, निष्कपट भावसे यज्ञ आदि करना, अन्नशाला खोलना, प्यायुका प्रबन्ध करना, धर्म करना और वाटिका आदिका निर्माण करना ये वैश्योंके कर्म हैं // 6 // तीन वर्षों के आश्रयसे आजीविका करना, बढ़ई आदिका कार्य करना, नृत्य-गान और भिक्षुओंकी सेवा सुश्रूषा करना ये शूद्रोंके कर्म हैं।॥१०॥ जो (कन्याका) एक विवाह करते हैं वे सच्छूद्र हैं॥११॥ जिनका आचार निर्दोष है, जो गृह, पात्र और वस्त्र आदिकी सफाई रखते हैं तथा शरीरको शुद्ध रखते हैं वे शूद्र होकर भी देव, द्विज और तपत्वियोंकी परिचयी करनेके अधिकारी हैं / / 12 / / क्रूर भावका त्याग अर्थात् अहिंसा, सत्यवादिता, पर धनका त्याग अर्थात् अचौर्य, इच्छापरिमाण, प्रतिलोम विवाह नहीं करना और निषिद्ध स्त्रियोंमें ब्रह्मचर्य रखना यह चारों वर्णोंका समान धर्म है / / 13 / / जिस प्रकार सूर्यका दर्शन सबको समानरूपसे होता है उसी प्रकार अहिंसा आदि धर्म सबके लिए साधारण है / मात्र विशेष धर्म (अलग अलग वर्णके कर्म) अलग अलग है // 14 // अपने आगमके अनुसार प्रवृत्ति करना यतियोंका स्वधर्म है / / 15 / / अपने धर्मसे विरुद्ध चलने पर यतियोंको अपने अपने आगमके अनुसार प्रायश्चित्त होता है / / 16 / / जो पुरुष जिस देवका श्रद्धालु हो वह उस देव की प्रतिष्ठा करे // 17 / / भक्तिके विना की गई पूजाविधि तत्काल शापका कारण होती है // 18 // वर्ण
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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