________________ जातिमीमांसा 353 करणं वृथा / अथ नास्ति, तथापि तद् वृथा / अब्राह्मणस्याप्यतो ब्राह्मण्य. सम्भवे शूदबालकस्यापि तत्सम्भवः केन वार्येत / ब्राह्मणत्वको संस्कारका कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि संस्कार शूद्र बालकका भी किया जा सकता है, इसलिए शूद्र बालकको भी ब्राह्मण होने का प्रसङ्ग आता है / दूसरे संस्कार करनेके पहले ब्राह्मण बालकमें ब्राह्मणत्व है या नहीं ! यदि है तो संस्कार करना व्यर्थ है / यदि नहीं है तो भी संस्कार करना व्यर्थ है, क्योंकि इस प्रकार तो अब्राह्मण भी संस्कारके बलसे ब्राह्मण हो जायगा, इसलिए शूद्र बालकके भी ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति सम्भव है / भला इस अपरिहार्य दोषको कौन रोक सकता है / ___ नापि वेदाध्ययनस्य, शूद्रेऽपि तत्सम्भवात् / शूद्रोऽपि हि कश्चिदेशान्तरं गत्वा वेदं पठति पाठयति वा / न तावतास्य ब्राह्मणत्वं भवद्भिरन्युपगम्यत इति / ततः सदृशक्रियापरिणामादिनिबन्धनैवेयं ब्राह्मणक्षत्रियादिव्यवस्था . ब्राह्मणत्वको वेदाध्ययनका मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात तो शूद्रके भी सम्भव है। कोई शूद्र दूसरे देशमें जाकर वेदको पढ़ता है और पढ़ाता भी है। परन्तु इतने मात्रसे आप लोग इसे ब्राह्मण माननेके लिए तैयार नहीं। इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय आदि वर्णोकी व्यवस्था सदृश क्रियाके कारण ही मानी गई है ऐसा समझना चाहिए / अर्थात् जो भी दया दान आदि क्रियामें तत्पर है वह ब्राह्मण है, जो देशरक्षा आदि कार्य करता है वह क्षत्रिय है, जो व्यापार गोपालन और खेतीबाड़ी करता है वह वैश्य है और जो स्वतन्त्र आजीविका न करके सेवा द्वारा आजीविका करता है वह शूद्र है। -प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० 486-487 ..'न खलु वडवायां गर्दभाश्वप्रभवापत्येष्विव ब्राह्मण्यां ब्राह्मणशूद्रप्रभवापत्येष्वपि वैलक्षण्यं स्वप्नेऽपि प्रतीयते /