________________ 352 - वर्ण, जाति और धर्म किञ्चेदं ब्राह्मणत्वं जोवस्य शरीरस्य उभयस्य वा स्यात्, संस्कारस्य वा वेदाध्यनस्य वा, गत्यन्तरासम्भवात् / न तावज्जीवस्य, क्षत्रियविटशूद्रादीनामपि ब्राह्मण्यस्य प्रसङ्गात्, तेषामपि जीवस्य विद्यमानत्वात् / ... हम पूछते हैं कि ब्राह्मत्व जीव, शरीर, उभय, संस्कार और वेदाध्ययन इनमेंसे किसका है, इनमेंसे किसी एकका मानना ही पड़ेगा, अन्य कोई चारा नहीं है। जीवका तो हो नहीं सकता, क्योंकि जीवका मानने पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि भी ब्राह्मण हो जावेंगे, क्योंकि उनके भी तो जीवका सद्भाव है। नापि शरीरस्य, अस्य पञ्चभूतात्मकस्यापि घटादिवत् ब्राह्मण्यासम्भवात् / न खलु भूतानां व्यस्तानां समस्तानां वा तत्सम्भवति / व्यस्तानां तत्सम्भवे क्षितिजलपवनहुताशनाकाशानामपि प्रत्येकं ब्राह्मण्यप्रसङ्गः / समस्तानां च तेषां तत्सम्भवे घटादीनामपि तरसम्भवः स्यात्, तत्र तेषां सामस्त्यसम्भवात् / नाप्युभयस्य, उभयदोषनुषङ्गात् / शरीरका भी नहीं हो सकता, क्यों शरीर पाँच भूतोंसे बना है, इसलिए पाँच भूतोंसे बने हुए घटादिका जैसे ब्राह्मणत्व नहीं होता वैसे ही वह शरीर का भी नहीं हो सकता / हम देखते हैं कि वह न तो अलग अलग भूतोंमें उपलब्ध होता है और न मिले हुए भूतोंमें ही। अलग अलग भूतोंमें उसका सद्भाव माननेपर पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इनमें से प्रत्येक को ब्राह्मण मानना पड़ेगा। यदि मिले हुए भूतोंमें वह माना जाता है तो घटादिकमें भी उसका सद्भाव सिद्ध हो जायगा, क्योंकि घटादिकमें सभी भूत मिलकर रहते हैं। यदि ब्राह्मणत्वको जीव और शरीर दोनोंका माना जाता है तो अलग अलग जीव और शरीरका माननेपर जो दोष दे आए हैं वे दोनोंका मानने पर भी प्राप्त होते हैं। नापि संस्कारस्य, अस्य शूदबालके कत्तु शक्तितस्तत्रापि तत्प्रसंगात् / किञ्च संस्कारात्प्राब्राह्मणबालस्य तदस्ति वा न वा ? यद्यस्ति, संस्कार