SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जातिमीमांसा 351 स्वीकार कर लेते हैं पर यह बात ब्राह्मणी आदिके विषयमें नहीं है / यदि कहा जाय कि वेश्याके घरमें प्रवेश करनेपर क्रियाका लोप होनेसे ब्राह्मण स्त्रियाँ निन्दनीय हो जाती हैं सो यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि तब भी वह ब्राह्मणी ही बनी रहती है, इसलिए बेश्याके घरमें प्रवेश करनेके पूर्व जैसे उसकी क्रियाका लोप नहीं होता वैसे उसके घरमें प्रवेश करनेके बाद भी उसका लोप होना असम्भब है। आप तो ऐसा मानते हैं कि जो भी व्यक्ति ब्राह्मण है वह क्रिया न भी करे तो भी उसके क्रियाकी प्रवृत्तिका निमित्त बना रहता है और आपके मतसे वह वेश्याके घरमें प्रवेश करनेवाली स्त्रीके है ही। यदि क्रियाका लोप होनेसे उसकी जातिका लोप आप मानते हैं तो व्रात्य पुरुषकी जातिका भी लोप हो जाना चाहिए, क्योंकि क्रिया लोप होनेकी अपेक्षा उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है। किञ्च क्रियान्वृत्तौ तज्जातेनिवृत्तिः स्याद् यदि क्रिया तस्याः कारणं व्यापिका वा स्यात्, नान्यथातिप्रसङ्गात् / न चास्याः कारणं व्यापकं वा किञ्चिदिष्टम् / न च क्रिया_शे जातेर्विकारोऽस्ति, 'भिन्नेष्वभिन्ना नित्या निरवयवा च जातिः' इत्याभिधानात् / न चाविकृताया निवृत्तिः सम्भवति, अतिप्रसङ्गात् / __ दूसरे क्रिया न करनेपर जातिका अभाव तो तब होवे जब क्रियाको जातिका कारण माना जावे या क्रियाको व्यापक माना जावे। अन्यथा अतिप्रसङ्ग दोष आता है। परन्तु आपको न तो जातिका कोई कारण ही इष्ट है और न किसीको इसका व्यापक मानना ही इष्ट है। यदि आप कहें कि क्रियासे भ्रष्ट होनेपर जातिमें विकार आ जाता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आपके मतमें 'अनेक पदार्थों में रहनेवाली जाति एक है, नित्य है और अवयवरहित है' ऐसा स्वीकार किया गया है। और जो विकाररहित होती है उसका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि फिर भी उसका सद्भाव मानने पर अतिप्रसङ्ग दोष आता है /
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy