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________________ 350 - वर्ण, जाति और धर्म एतेनाविगानतस्त्रैवर्णिकोपदेशोऽत्र वस्तुनि प्रमाणमिति प्रत्युक्तम्, तस्याप्यव्यभिचारित्वाभावात् / दृश्यन्ते हि बहवस्त्रैवर्णिकैर विगानेन ब्राह्मणत्वेन व्यवह्रियमाणा विपर्ययभाजः / तन्न परपरिकल्पतायां जातौ प्रमाणमस्ति यतोऽस्याः सद्भावः स्यात् / सद्भावे वा वेश्यापाटकादिप्रविष्टानां ब्राह्मणीनां ब्राह्मण्याभावो निन्दा च न स्यात् , जातियतः पवित्रताहेतुः / सा च भवन्मते तदवस्थैव / अन्यथा गोत्वादपि ब्राह्मण्यं निकृष्टं स्यात् / गवादीनां हि चाण्डालादिगृहे चिरोषितानामपीष्टं शिष्टरादानम्, न तु ब्राह्मण्यादीनाम् / 'अथ क्रियाभ्रंशात्तत्र ब्राह्मण्यादीनां निन्द्यता, न, तज्जात्युपलम्भे तद्विशिष्टवस्तुव्यवसाये च पूर्ववत्क्रियानंशस्याप्यसम्भवात् / ब्राह्मणत्वजातिविशिष्टव्यक्तिव्यवसायो. ह्यप्रवृत्ताया अपि क्रियायाः प्रवृत्तेनिमित्तम् / स च तदवस्थ एव भवदभ्युपगमेन / क्रियानंशे तज्जातिनिवृत्तौ च व्रात्येऽप्यस्या निवृत्तिः स्यात्, तद्शा- . विशेषात् / ___बहुतसे लोक ऐसा कहते हैं कि विवाद रहित होनेसे तीन वर्णका उपदेश प्रकृतमें प्रमाण है, परन्तु उनका ऐसा. कहना भी पूर्वोक्त कथनसे ही खण्डित हो जाता है, क्योंकि यह उपदेश भी निर्दोष नहीं है। अक्सर जो त्रैवर्णिक हैं उनका भी निर्विवादरूपसे ब्राह्मणके समान व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। इसलिए मीमांसक श्रादिके द्वारा मानी गई जाति प्रमाणसिद्ध न होनेसे उसका सद्भाव नहीं माना जा सकता / फिर भी यदि उसका सद्भाव माना जाता है तो ब्राह्मण स्त्रियोंके वेश्याके गृह आदिने प्रवेश करने पर न तो उनका ब्राह्मणत्व ही समाप्त होना चाहिए और न निन्दा ही होनी चाहिए, क्योंकि आपके यहाँ कर्मके विना केवल जाति ही पवित्रता का कारण माना गया है और वह पवित्रता उन स्त्रियोंकी उस अवस्था में भी बनी रहती है। यदि ऐसा न माना जाय तो ब्राह्मणजाति गोजातिसे भी निकृष्ट ठहरती है / यह तो जगप्रसिद्ध बात है कि गाय आदि बहुत काल तक चाण्डाल आदिके घरमें रही आती है फिर भी शिष्ट पुरुष उसे
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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