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________________ जातिमीमांसा क्रियाविलोपात् शूद्वान्नादेश्च जातिलोपः स्वयमेवाभ्युपगतः / * क्रियाका लोप होनेसे और शूद्रान्नके भक्षण करने आदिसे जातिलोप आपने (मीमांसकोंने) स्वयं स्वीकार किया है / यथा शूद्रानाच्छूद्रसम्पर्काच्छूद्रेण सह भाषणात् / इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतः श्वा चाभिजायते // उद्धत / शूद्रका अन्न खानेसे, शूद्रके साथ सम्पर्क स्थापित करनेसे और शूद्र के साथ बातचीत करनेसे इस जन्ममें शूद्र हो जाता है और मरकर अगले जन्ममें कुत्ता होता है |पृ० 483 // ___ ननु ब्राह्मण्यादिजातिविलोपे कथं वर्णाश्रमव्यवस्था तन्निबन्धनो वा तपोदानादिव्यवहारो जैनानां. घटेत ? इत्यप्यसमीचीनम्, क्रियाविशेषयज्ञोपवीतादिचिह्नोपलक्षिते व्यक्तिविशेषे तद्वयवस्थायास्तद्वयवहारस्य चोपपत्तेः / कथमन्यथा परशुरामेण निःक्षत्रीकृत्य ब्राह्मणदत्तायां पृथिव्यां क्षत्रियसम्भवः। यथा चानेन निःक्षत्रीकृतासौ तथा केनचिनिर्बाह्मणीकृतापि सम्भाव्येत / ततः क्रियाविशेषादिनिबन्धन एवायं ब्राह्मणादिव्यवहारः। शंका-ब्राह्मणत्व आदि जातिका लोप कर देनेपर जैनोंके यहाँ वर्णाश्रमव्यवस्था और उसके निमित्तसे होनेवाला तप तथा दान आदि व्यवहार कैसे बनेगा ? समाधान-भीमांसकोंका यह. कहना समीचीन नहीं है, क्योंकि जो व्यक्ति क्रियाविशेष करता है और यज्ञोपवीत श्रादि चिन्हसे युक्त है उसमें बर्णाश्रमधर्म और तप-दान आदि व्यवहार बन जाता है। यदि ऐसा न माना जाय तो परशुरामके द्वारा समस्त पृथिवीको क्षत्रियोंसे शून्य करके उसे ब्राह्मणोंको दान कर देनेपर पुनः क्षत्रिय कहाँसे उत्पन्न हो गये। जिस प्रकार उसने समस्त पृथिवीको क्षत्रिय रहित कर दिया था उसी प्रकार अन्य कोई उसे ब्राह्मण रहित भी कर सकता है, इसलिए यह ब्राह्मण है इत्यादि व्यवहार क्रियाविशेषके निमित्तसे ही होता है ऐसा समझना चाहिए।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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