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________________ व्यक्तिधर्म हो / वस्तुतः जैनधर्ममें वही प्राणी धर्म धारण करने के लिए अपात्र माना गया है जिसके जीवन में उसे धारण करनेकी योग्यता नहीं होती। यथा-असंज्ञी जीव धर्म धारण नहीं कर सकते, क्योंकि मन न होनेसे उनमें आत्मासम्बन्धी हिताहितके विचार करनेकी योग्यता नहीं होती। संशियोंमें जो अपर्याप्त हैं, अर्थात् जिनके शरीर, इद्रियाँ और मनके निर्माण करने लायक पूरी योग्यता नहीं आई है वे भी इसी कोटिके माने गये हैं। पर्याप्तकोंमें भी शरीर, इन्द्रियाँ और मनका पूरा विकाश होकर जब तक उनमें अपने आत्माके अस्तित्वको स्वतन्त्ररूपसे जानने और समझने की योग्यता नहीं आती तबतक वे भी धर्मको धारण करनेके लिए पात्र नहीं माने गये हैं। इनके सिवा शेष सब संसारी जीव अपनी-अपनी गति और कालके अनुसार धर्म धारण करनेके लिए पात्र हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है / जैन धर्ममें किसीके साथ पक्षपात नहीं किया गया है / यह इसीसे स्पष्ट है कि सम्मूर्छन तिर्यञ्चोंमें यह योग्यता जन्मसे अन्तर्मुहूर्त बाद ही और गर्भज तिर्यञ्चोंमें गर्भके दो महीनोंके बाद ही स्वीकार कर ली गई है। जब कि मनुष्योंमें ऐसी योग्यता आनेके लिए लगभग आठ वर्ष स्वीकार किये गये हैं। क्यों ? यह इसलिए नहीं कि तिर्यश्च मनुष्योंसे बड़े हैं, बल्कि इसलिए कि तिर्यञ्चको इस प्रकारकी योग्यताको जन्म देनेके लिए उतना समय नहीं लगता जितना मनुष्यको लगता है। एक बात और है जिसका सम्बन्ध चारित्रसे है। जैनधर्ममें चारित्र स्वावलम्बनका पर्यायवाची माना गया है। यहाँ स्वावलम्बनसे हमारा तात्पर्य मात्र आत्माके अवलम्बनसे है। इस प्रकारका पूर्ण स्वावलम्बन तो साधु जीवन में ध्यान अवस्थाके होनेपर ही होता है। इसके ____1. जीवस्थान कालानुयोगद्वार सूत्र 56 धवला टीका। 2. जीवस्थान कालानुयोगद्वार सूत्र 64 धवला टोका / 3. जीवस्थान कालानुयोगद्वार सूत्र र धवला टीका।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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