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________________ 34 वर्ण, जाति और धर्म पूर्व वह बुद्धिपूर्वक स्वीकार किये गये सब प्रकारके परिग्रहका त्याग करता है। शरीर भी एक परिग्रह है। इतना ही क्यों ? जो कर्म आत्मासे सम्बन्धको प्राप्त हुए हैं और उनके. निमित्तसे जो रागादि भाव उत्पन्न होते रहते हैं वे भी परिग्रह हैं। किन्तु ये शरीरादि परिग्रह ऐसे हैं जिनका त्याग केवल संकल्प करनेसे नहीं हो सकता। साधु जीवनकी चरितार्थता ही इसीमें है कि वह रागादि भावोंके परवश न होकर उत्तरोत्तर ऐसा अभ्यास करता रहे जिससे उसका अन्तरङ्ग : परिग्रह भी कम होनेकी दिशामें प्रगति करता हुआ अन्तमें निःशेष हो जाय / इसलिए साधु जीवनकी प्रारम्भिक मर्यादाका निर्देश करते हुए आगममें यह कहा गया है कि जिस परिग्रहको यह जीव बुद्धिपूर्वक त्याग सकता है और जिसका साधुजीवनमें रञ्चमात्र भी उपयोग नहीं है उसका त्याग करने पर ही साधु जीवन प्रारम्भ होता है। जो नहीं त्याग सकता वह गृहस्थ अवस्थामें रहता हुआ भी मोक्षमार्गका अभ्यास कर सकता है। किन्तु जबतक यह जीव बुद्धिपूर्वक स्वीकार किये गये परिग्रह का पूर्णरूपले त्याग नहीं करता तब तक उसके अन्तरङ्ग परिग्रहका वियुक्त होना सम्भव नहीं है / इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस गतिमें धर्मकी जो सोमा निश्चित की गई है वह उस उस गतिकी योग्यता और प्राकृतिक नियमोंके आधार पर ही की गई है, रागी जीवोंके द्वारा बनाये गये कृत्रिम नियमोंके आधार पर नहीं। सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके साधन सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेके अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग साधन क्या है इनका जैन-साहित्यमें विस्तारके साथ विचार किया है। बाह्य-साधनोंका निर्देश करते हुए वहाँ पर बतलाया है कि नरकमें सम्यग्दर्शनको उत्पन्न 1. जीवस्थान गति-आगतिचूलिका सूत्र 6 से लेकर / सर्वार्थसिद्धि अ०.१ सू०७।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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