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________________ वर्ण, जाति और धर्म योग्यता न होनेसे वहाँ उसका निषेध किया है। भोगभूमि और नरकगतिकी . स्थिति देवगतिके हो समान है। तिर्यञ्चगतिमें श्राहार पानीका यथेच्छ ग्रहण और त्याग दोनों सम्भव है किन्तु वे हिंसादि विकारों के त्यागकी जीवनमें स्थूल रेखा ही खींच सकते हैं / तिर्यञ्च पर्यायमें इससे श्रागे बाना उन्हें भी सम्भव नहीं है, इसलिए उनमें सम्यग्दर्शनके साथ आंशिक आचारधर्मके प्राप्त कर सकनेकी योग्यताका विधान किया है। किन्तु मनुष्यगतिमें मनुष्योंकी स्थिति अन्य गतियोंसे सर्वथा भिन्न है, क्योंकि न्यूनाधिक मात्रामें अन्यत्र बो बाधा दिखलाई देती है वह इनमें नहीं देखी जाती। मनुष्यका मार्ग चारों ओरसे खुला हुआ है। उसमें क्षेत्र, शरीर, जाति और कुल ये बाधक नहीं हो सकते। म्लेक्षक्षेत्र, जाति और कुलका ही मनुष्य क्यों न हो, न तो उसमें किसी प्रकारकी शारीरिक कमी दिखलाई देती है और न आध्यात्मिक कमी ही दिखलाई देती है। वह तीर्थङ्करोंके द्वारा दिये गये उपदेशको सुनकर सम्यग्दर्शनका अधिकारी हो सकता है, अहिंसादि देशव्रतों और महाव्रतोंको पूर्णरूपसे बीवन में उतार सकता है, वस्त्रादिका त्याग कर नम रह सकता है, खरे होकर दिनमें एक बार लिये हुए भोजन पर निर्वाह कर सकता है, स्वयं अपने हाथसे केशोंका उत्पाटन कर सकता है; वन, नदीतट, श्मसान और गिरिगुफामें निवास कर सकता है, अन्य प्राणियोंके द्वारा उपसर्ग किये जाने पर उनको सहन कर सकता है तथा ध्यानादि उपायों द्वारा आत्माकी साधना कर सकता है। इसके लिए न तो कर्मभूमिके किसी विवक्षित क्षेत्रमें उत्पन्न होना आवश्यक है और न किसी विवक्षित जाति और कुलमें ही उत्पन्न होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ-किसी तथाकथित शुद्रको सद्गुरुका समागम मिलने पर उपदेश सुनकर उसका भाव यदि वीतराग जिन मुद्राको धारण करने का होता है तो उसके शरीर और जीवन में ऐसी कोई प्राकृतिक बाधा दिखलाई नहीं देती जो उसे ऐसा करनेसे रोकती
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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