________________ व्यक्तिधर्म करना और उसपर अमल कर आत्मोन्नति करना उसकी अपनी आन्तरिक तैयारी (योग्यता) और अधिकारकी बात है। स्वयं तीर्थङ्कर जिन्होंने जैनधर्मका उपदेश देकर समय समय पर मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति चलाई वे भी किसी मनुष्यके इस प्राकृतिक अधिकारको छीननेकी सामर्थ्य नहीं रखते। ) गतिके अनुसार धर्मधारण करनेकी योग्यता जैनधर्म में किस गतिका जीव कितनी मात्रामें धर्मको धारण कर सकता है इसका स्पष्ट निर्देश किया है। वह ऊपरसे लादा गया बन्धन नहीं है / वस्तुतः उस गतिमें उत्पन्न हुए जीवोंकी गतिसम्बन्धी योग्यता और प्राकृतिक नियमोंको (मनुष्य निर्मित नियमोंको नहीं) जानकर ही जिस गतिमें जितनी मात्रामें धर्मका प्रकाश संभव है उस गतिमें वह उतनी मात्रामें कहा गया है / उदाहरणार्थ-देवगतिमें सब देवोंमें अपने अपने क्षेत्र और आयुके अनुसार भोजन, श्वासोच्छ्रास और कामोफ्भोगका कालनियम है / कोई देव अनाहार व्रतसे प्रतिज्ञात होंकर एकादि बारके आहारका त्याग करना चाहे या प्राणायामके नियमानुसार विवक्षित समयमें श्वासोच्छ्रास न लेना चाहे या ब्रह्मचर्यव्रतसे प्रतिज्ञात होकर कामोपभोगका वर्जन करना चाहे तो वह ऐसा नहीं कर सकता / अधिक मात्रामें आहार लेकर शरीरको पुष्ट कर ले या कुछ काल तक आहारका त्याग कर उसे कृश कर डाले यह भी वहाँ पर सम्भव नहीं है। इसी प्रकार भोगोपभोगके जो साधन वहाँ पर उपलब्ध हैं उनमें घटाबढी करना भी उसके बसकी बात नहीं है। वह विक्रिया द्वारा छोटे-बड़े उत्तरशरीरको बना सकता है और आमोद-प्रमोदके या भयोत्पादक नानाप्रकारके साधन भी उत्पन्न कर सकता है पर यह सब खेल विक्रियामें ही होता है / वहाँ प्राप्त हुए मूल शरीर और प्राकृतिक जीवनमें नहीं। वहाँ प्राप्त हुए प्राकृतिक साधनोंमें भी घटाबढ़ी नहीं होती। यही कारण है कि देवोंमें आन्तरिक आचारधर्मके प्राप्त करनेकी