________________ 30 वर्ण, जाति और धर्म अनादर करता है वह अपने धर्मका ही अनादर करता है। उसके नीच गोत्रकर्मका बन्ध होता है। जाति और कुलका तो अहङ्कार इसलिए भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये काल्पनिक है। लोकमें जन्मके बाद प्रत्येक व्यक्तिके नाम रखनेकी परिपाटी है। इससे विवक्षित अर्थका बोध होने बड़ी सहायता मिलती है। चार निक्षेपोंमें नामनिक्षेप माननेका यही कारण है। किन्तु इतने मात्रसे नामको वास्तविक नहीं माना जा सकता, क्योंकि जिस प्रकार माताके उदरसे शरीरकी उत्पत्ति होती है उस प्रकार उसके उदरसे नामकी उत्पत्ति नहीं होती। यह तो उसके पृथक् अस्तित्वका बोध करानेके लिए माता पिता आदि बन्धु वर्गके द्वारा रखा गया संकेतमात्र है। जाति और कुलके अस्तित्वको लगभग यही स्थिति है / ब्राह्मण आदि जाति और इक्ष्वाकु आदि कुल न तो जीवरूप हैं, न शरीररूप ही और न दोनों रूप ही / वास्तवमें ये तो प्रयोजन विशेषसे रखे गये संकेतमात्र हैं, अतः धर्मके धारण करने में न तो ये बाधक हैं और न साधक ही / हाँ यदि इनका अहङ्कार किया जाता है तो अवश्य ही इनका अहङ्कार करनेवाला मनुष्य धर्मधारण करनेका पात्र नहीं होता, क्योंकि जातिका सम्बन्ध आत्मासे न होकर शरीर (आजीविका) से है और शरीर भवका मूल कारण है, इसलिए जो धर्माचरण करते हुए जातिका आग्रह करते हैं वे संसारसे मुक्त नहीं होते। धर्म आत्माका स्वभाव है / उसका सम्बन्ध जाति और कुलसे नहीं है। आर्य हो या म्लेच्छ, ब्राह्मण हो या शूद्र, भारतवासी हो या भारतवर्षसे बाहरका रहनेवाला, वह हूण, शक और यवन ही क्यों न हो, धर्मको स्वीकार 1. रत्नकरण्ड० श्लोक० 26 / 2. अनगारधर्मामृत अ० / श्लोक 88 की टीकामें उद्धृत / 3. धवला टीका कर्मप्रकृति अनुयोगद्वार / 4. समाधितन्त्र श्लो०५८।