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________________ व्यक्तिधर्म धारियोंकी कोई ऐसी अनिवर्चनीय सम्पत्ति प्राप्त होती है जिसकी कल्पना करना शक्तिके बाहर है। सब देव तो सम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर ही सकते हैं। किन्तु इस अपेक्षासे मनुष्योंकी स्थिति तिर्यञ्चोंसे भिन्न नहीं है। जिसको भारतवर्ष में उच्चकुली कहते हैं वह तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका अधिकारी है ही। किन्तु जो चाण्डाल जैसे निकृष्ट कर्मसे अपनी आजीविका कर रहा है वह भी सम्यग्दर्शनको उत्पन्न कर सकता है। उसका तथाकथित अछूतपन इसमें बाधा नहीं डाल सकता / स्वामी समन्तभद्र रत्नकरण्डमें कहते हैं सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातदेहजम् / देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसम् // 28 // अर्थात् जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे . सम्पन्न है वह चाण्डालके शरीरसे उत्पन्न होकर भी देव अर्थात् ब्राह्मण या उत्कृष्ट है ऐसा जिनदेव कहते हैं / उसकी दशा उस अंगारेके समान है जो भस्मसे आच्छादित होकर भी भीतरी तेजसे प्रकाशमान है। धर्ममें जाति और कुलको स्थान नहीं (मनुष्य जातिमें चाण्डालसे निकृष्ट कर्म अन्य किसी जातिका नहीं होता। इस कर्मको करनेवाला व्यक्ति भी जब सम्यग्दर्शन जैसे लोकोत्तर धर्मका अधिकारी हो सकता हैं. तब अन्यको इसके अधिकारी न माननेकी चरचा करना कैसे सम्भव हो सकता है / वास्तवमें जैनधर्ममें ज्ञानकी विपुलता, लौकिक पूजा-प्रतिष्ठा, इक्ष्वाकु आदि कुल, ब्राह्मण आदि जाति, शारीरिक चल, धनादि सम्पत्ति, तप और शरीर इनका महत्व नहीं है। इस धर्ममें दीक्षित. होनेवाला तो ज्ञानादिजन्य आठ मदोंको त्याग कर ही उसकी दीक्षाका अधिकारी होता है / इतना सब होते हुए भी जो जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, शील, ज्ञान, तप और बलका अहङ्कार कर दूसरे धर्मात्माओं का
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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