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________________ वर्ण, जाति और धम जगत्यस्मिन्महावंशाश्चत्वारः प्रथिता नृप। एषां रहस्यसंयुक्ताः प्रभेदा बहुधोदिताः // 51 // इक्वाकुः प्रथमस्तेषामुन्नतो लोकभूषणः / ऋषिवंशो द्वितीयस्तु शशांककनिर्मलः // 5-2 // विद्याभृतां तृतीयस्तु वंशोऽत्यन्तमनोहरः / हरिवंशो जगत्ख्यातश्चतुर्थः परिकीर्तितः 5-3 // अयमादित्यवंशस्ते प्रथितः क्रमतो नृप / उत्पत्तिः सोमवंशस्य साम्प्रतं परिकोयते // 5-11 // एष ते सोमवंशोऽपि कथितः पृथिवीपते / / वैद्याधरमत वंश कथयामि समासतः // 5-15 // एवं वैद्याधरोऽयं ते राजन् वंशः प्रकीर्ततः / अवतारो द्वितीयस्य युगस्यातः प्रचच्यते // 5-56 // रक्षन्ति रक्षसां द्वीपं पुण्येन परिरक्षिताः। राक्षसानामतो द्वीपं प्रसिद्धिं तदुपागतम् // 5-386 // एष राक्षसवंशस्य सम्भवः परिकीर्तितः वंशप्रधानपुरुषान्कीर्तियिष्याम्यतः परम् // 5-387 // हे राजन् ! इस लोकमें चार महावंश प्रसिद्ध हुए हैं। रहस्ययुक्त इनके अनेक भेद-प्रभेद कहे गये हैं // 1 // उनमेंसे लोकमें भूषणरूप सर्वश्रेष्ठ पहला इक्ष्वाकुवंश है / चन्द्रमाकी किरणके समान निर्मल दूसरा ऋषिवंश है / / 2 / / अत्यन्त मनोहर तीसरा विद्याधर वंश है / और चौथा जगत्प्रसिद्ध हरिवंश कहा गया है ॥३॥....हे राजन् क्रमसे यह श्रादित्यवंश कहा है। अब सोमवंशकी उत्पत्तिका कथन करते हैं ॥१०॥"हे पृथिवीपते ! यह सोमवंश कहा। अब संक्षेपमें विद्याधरवंशका कथन करते हैं // 15 / / ....... इस प्रकार हे राजन् ! यह विद्याधरवंश कहा। अब दूसरे युगकॉ कथन करते हैं ।।५६॥...."पुण्यसे रक्षित होकर राक्षसोंके द्वीपकी रक्षा करते हैं, इसलिए इस द्वीपका नाम राक्षसद्वीप प्रसिद्धिको प्राप्त
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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