SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 335 कुल-मीमांसा कुल मीमांसा समणं गणिं गुणड्ड कुलस्ववयोविसिमिठ्ठदरं / समणो हि तं पि पणदो पडिच्छमं चेदि अणुगहिदो // 203 // जो गुणोंसे अाढ्य हैं, कुल, रूप और वयसे विशिष्ट हैं तथा श्रमणोंके लिए अत्यन्त इष्ट हैं ऐसे गणीको प्राप्त होकर और नमरकार कर मुझे अङ्गीकार करो ऐसा शिष्यके द्वारा कहनेपर प्राचार्य अनुगृहीत करते हैं। -प्रवचनसार जादी कुलं च सिप्पं तवकम्मं ईसरत्तं आजीवं / / तेहिं पुण उप्पादो आजीव दोसो हवदि एसो // 31 // जाति, कुछ, शिल्प, तपःकर्म और ईश्वरपना इनकी आजीव संज्ञा. है / इनके आश्रयसे अाहार प्राप्त करना आजीव नामका दोष है। मूलाचार पिण्डशुद्धि अधिकार आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्॥६-४६॥ आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ इनकी वैयावृत्त्यके दस भेद हैं // 6-24 // __-तत्त्वार्थसूत्र महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः। .. सम्यग्दर्शनसे पवित्र हुए पुरुष महाकुलवाले और महापुरुषार्थवाले मानवतिलक होते हैं। -रत्नकरण्ड दीक्षकाचार्यशिष्यसंस्त्यायः कुलम् / दीक्षकाचार्य के शिष्य समुदायको कुल कहते हैं। - -त० सू०, भ० 6 सू० 24 सर्वार्थसिद्धि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy