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________________ गोत्र-मीमांसा 326 निष्फल है यह बात भी नहीं है, क्योंकि जिनका दीक्षा योग्य साधु अाचार है, साधु अाचारवालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो 'आर्य' इस प्रकारके ज्ञान, वचन और व्यवहारके निमित्त हैं उन पुरुषोंकी परम्परा उच्चगोत्र कहलाती है। उनमें उत्पत्तिका कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। इस लक्षणमें पूर्वोक्त दोष भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उन दोषों का इस लक्षणके साथ विरोध है / तथा उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार. गोत्रकर्मकी दो ही प्रकृतियाँ है / . -प्रकृति अनुयोगद्वार सूत्र 136 धवला ण गोदं जीवगुणविणासयं, तस्स गीचुच्चकुलसमुप्पायणम्मि वावारादो। गोत्रकर्म जीवगुणका विनाश करनेवाला नहीं है, क्योंकि उसका नीच और उच्च कुलके उत्पन्न करने में व्यापार होता है। -क्षुल्लकबन्ध, स्वामित्व सूत्र 15, धवला ___तिरक्खेसु णीचागोदस्स चेव उदीरणा होदि त्ति सव्वत्थ परूविदं / एत्थ पुण उच्चागोदस्स वि परूवणा परूविदा तेण पुव्वावरविरोहो त्ति भणिदे ण, तिरिक्खेसु संजमासंजमं परिवालयंतेसु उच्चागोदत्तुवलंभादो। उच्चागोदे देस-सयलणिबंधणे संते मिच्छाइट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ वि उच्चागोदजणिदसंजमजोगत्तावेक्वाए उच्चागोदत्तं पडि विरोहाआवादो। ___ शंका-तिर्यञ्चोंमें सर्वत्र नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है ऐसा सर्वत्र कथन किया है। परन्तु यहाँ उनमें उच्चगोत्रकी ही उदीरणा कही है इसलिए पूर्वापर विरोध आता है। समाधान-नहीं, क्योंकि संयमासंयमका पालन करनेवाले तिर्यञ्चोंमें उच्चगोत्र भी पाया जाता है। .शंका-उच्चगोत्र देशसंयम और सकलसंयमके कारणसे होता है, इसलिए मिथ्यादृष्टियोंमें उसका अभाव प्राप्त होता है।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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