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________________ 328 वर्ण, जाति और धर्म वेदनीयके निमित्तसे होती है। पाँच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यता भी उच्चगोत्रके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि ऐसा माननेपर जो देव और अभव्य जीव पाँच महाव्रतोंको धारण नहीं कर सकते हैं उनमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है। सम्यग्यानकी उत्पत्तिमें उसका व्यापार होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम सापेक्ष सम्यग्दर्शनसे होती है। तथा ऐसा माननेपर तिर्यञ्चों और नारकियोंमें भी उच्चगोत्रका उदय प्राप्त होता है, क्योंकि उनके सम्यग्ज्ञान होता है। श्रादेयता, यश और सौभाग्यके होनेमें इसका व्यापार होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति नामकर्मके निमित्तसे होती है। इक्ष्वाक्षु कुल आदिकी उत्पत्तिमें भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि वे काल्पनिक हैं, परमार्थसे उनका सद्भाव ही नहीं पाया जाता। तथा इन कुलोंके अतिरिक्त वैश्य, ब्राह्मण और साधुत्रोंमें भी उच्चगोत्रका उदय देखा जाता है। सम्पन्न जनोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमें इसका व्यापार होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह तो म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकके भी उच्चगोत्रका उदय प्राप्त होता है / अणुवतियोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमें उच्चगोत्रका व्यापार होता है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर औपपादिक देवोंमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है तथा नाभेय नीचगोत्री ठहरते हैं। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है और इसीलिए उसमें कर्मपना भी नहीं है। उसका अभाव होनेपर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि दोनोंका परस्पर अविनाभाव है, इसलिए गोत्रकर्मका अभाव होता है ? समाधान-नही; क्योंकि जिनवचनके असत्य होने में विरोध आता है। वह भी वहाँ असत्य वचनके कारणोंके नहीं होनेसे जाना जाता है / तथा केबलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थोंमें छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते हैं। यदि छद्मस्थोको कुछ अर्थ उपलब्ध नहीं होते हैं तो इतने मात्रसे जिनवचनको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता है / गोत्रकर्म
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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