________________ 314. __वर्ण, जाति और धर्म हैं-अन्तीपज म्लेच्छ और कर्मभूमिज म्लेच्छ / लवणादि समुद्रोंके . मध्य अन्तीपोंमें रहनेवाले अन्तर्दोपज म्लेच्छ हैं और शक, यवन, शवर तथा पुलिन्द आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ हैं। -त० सू० 3-37, सर्वार्थ सिद्धि [तत्त्वार्थसूत्रान्यटीकासु एवमेव मनुष्याणां भेदाः समुलभ्यन्ते / श्लोकवार्तिके तु केवलं लक्षणापेक्षया भेदो दृश्यते / यथा-] [तत्वार्षसूत्रकी अन्य टीकात्रोंमें मनुष्योंके भेद इसी प्रकार उपलब्ध होते हैं / श्लोकवार्तिकमें मात्र लक्षणकी अपेक्षा भेद दिखलाई देता है / यथा-] उच्चैर्गोत्रोदयादेरार्याः नीचैर्गोत्रादेश्च म्लेच्छाः / जिनके उच्चगोत्रका उदय आदि होता है वे आर्य कहलाते हैं और जिनके नीचगोत्रका उदय आदि होता है वे म्लेच्छ कहलाते हैं / कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः। स्युः परे च तदाचारपालनाद्बहुधा जनाः // 8 // स्वसन्तानानुवर्तिनी हि. मनुष्याणां आर्यत्वव्यवस्थितिः सम्यग्दर्शनादिगुणनिबन्धना / म्लेच्छव्यवस्थितिश्च मिथ्यात्वादिदोषनिबन्धना स्वसंवेदनसिद्धा स्वरूपवत् / यवनादिक कर्मभूमिज म्लेच्छ रूपसे प्रसिद्ध हैं। तथा उनके प्राचार का पालन करनेवाले और भी अनेक प्रकारके मनुष्य म्लेच्छ होते हैं // 8 // अपनी सन्तानके अनुसार मनुष्योंकी आर्य-म्लेच्छ व्यवस्था है। उनमेंसे आर्य-परम्परा सम्यग्दर्शनादि गुणोंके निमित्तसे होती है और म्लेच्छपरम्परा मिथ्यात्व आदि दोषोंके निमित्तसे होती है और यह स्वरूपके स्वसंवेदनके समान अनुभवसिद्ध है। -श्लोककर्तिक त० सू० 3-30